ल्हासा की ओर (राहुल सांकृत्यायन)व्याकरण - निबंध लेखन
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लेखक ने जब तिब्बत की यात्रा की थी तब फटी–कलिङ्पोङ् का रास्ता नहीं बना था। उस समय नेपाल से तिब्बत जाने का एक ही रास्ता था। वैसे यह मुख्यत: व्यापारिक और सैनिक रास्ता था। जिससे होकर व्यापारी व सैनिक आते जाते थे । परन्तु इसी रास्ते से नेपाल व भारत के लोग भी आते जाते थे। इसीलिए लेखक ने इसे उस समय का मुख्य रास्ता बताया है।
लेखक कहते हैं कि रास्ते में जगह-जगह पर चीनी फौजियों की चौकियों व किले बने हुए थे। जिनमें कभी चीनी सैनिक रहा करते थे। लेकिन अब वो पूरी तरह से टूट चुके हैं और वीरान भी हैं। लेकिन उन किलों के कुछ हिस्सों में वहां के किसानों ने अपना बसेरा बना लिया हैं। इसीलिए उन किलों के कुछ हिस्से आबाद थे।
ऐसे ही एक परित्यक्त चीनी किले (छोड़ा हुआ किला) में लेखक व उनके मित्र चाय पीने के लिए रुके। तब उन्होंने देखा कि उस समय तिब्बत में जाति–पाति , ऊंच-नीच , छुआछूत का भेद भाव नहीं था और न ही वहाँ की महिलाएं परदा करती थी । हाँ चोरी के डर से निम्न स्तर के भिखारियों को घरों में घुसने नहीं दिया जाता था।
मगर अपरिचितों के घरों के अंदर आने-जाने में कोई रोकटोक नहीं थी।अपरिचितों द्वारा चाय का सामान देने पर घर की महिलायें (बहु या सास) उन्हें चाय बनाकर दे देती थी। वहां पर मक्खन व नमक की चाय पी जाती हैं।
परित्यक्त चीनी किले से चाय पीने के बाद जब वो आगे चलने लगे तो एक व्यक्ति ने उनसे दो चिटें (प्रवेश पत्र / Permission Letter) राहदारी माँगी। ये चिटें उन्हें गांव के एक पुल को पार करने के लिए देनी पड़ती थी। पुल पार करने के बाद वो थोड़ला के पहले पड़ने वाले आखिरी गाँव में पहुँच गए।
यहाँ सुमति (राहुल के बौद्ध भिक्षु दोस्त) की पहचान होने के कारण भिखारी के भेष में होने के बाद भी उन्हें रहने को अच्छी जगह मिली। लेखक कहते हैं कि पांच साल बाद जब वो इसी रास्ते से वापस लौट रहे थे तब उन्हें रहने की जगह नहीं मिली थी और उन्हें एक झोपड़ी में ठहरना पड़ा था। जबकि वे उस वक्त भिखारी नहीं बल्कि भद्र (अच्छे) यात्री के वेश में थे।
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