Hindi, asked by prahladsharma47979, 2 days ago

लोकतंत्र में पंचायती राज का महत्व लिखो​

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Answered by jsathwal742
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Explanation:

लोकतंत्र की जो लोकप्रिय परिभाषा अब्राहिम लिंकन द्वारा दी गई है जिसमें उन्होंने लोकतंत्र को जनता का , जनता द्वारा और जनता के लिये शासन कहा है। आज भी प्रांसंगिक यह परिभाषा और इसका वास्तविक मूर्तरूप हमें पंचायती राज व्यवस्था में देखने को मिलता है।

भारत में सही - सही एवं यथार्थ रूप में विकेन्द्रित लोकतंत्रीय राज व्यवस्था का मूर्तमान रूप में क्रियान्वयन ही पंचायती राज व्यवस्था का फवितार्थ है। वस्तुतः भारतीय लोकतंत्र इस बुनियादी धारणा पर आधारित है कि शासन के प्रत्येक स्तर पर जनता अधिक से अधिक शासन के कार्यो में हाथ बेंटाये और अपने पर राज करने की जिम्मेदारियों का निर्वहन स्वयं करे। भारत गावों का देश है , गांव देश की बुनियाद हैं और यहां जनतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि ग्रामीणजनों का शासन से कितना अधिक प्रत्यक्ष एवं सजीव संपर्क स्थापित हो पाता है।

विशाल भारत की भौगोलिक परिस्थिवियां विकेन्द्रीकरण की पक्षधर रही हैं जो क्षेत्रीय एवं आंचलिक विकास की भावना से ओतप्रोत कही जा सकती हैं। इसी क्रम में ग्रामीण विकास विकास पंचायती राज व्यवस्था से ही संभव है। यह विचार ग्रास रूट्स डेमोक्रेसी पर आधारित है जिसमें माना जाता है कि लोकतंत्र की आधारशिला छोटे स्वशासी समुदायों पर रखी जानी चाहिये। जब तूफान - आंधी का प्रकोप आता है तो अनेक बड़े वृक्ष धराशाही हो जाते हैं जबकि नीचे की हरी भरी घास लहराती रहती है।

हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समूची चिंतन धारा ग्रामोन्मुखी थी। उनकी मान्यता थी कि भारत के अभीष्ट राजनीतिक एवं आर्थिक समाज की रचना का चित्र यह है कि इसकी नींव ग्रामपंचायतों पर होगी। ये ग्रामपंचायतें परस्पर मिलकर छोटे - छोटे संघ बनावेंगी और छोटे संघ बडे़ संघ बनावेंगे। यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर व्यापक होती जावेगी। इस तरह से पंचायतें भारत के राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ बनेंगी। गांधी जी का स्पष्ट कहना था कि बीस आदमी केन्द्र में बैठकर सच्चे लोकतंत्र को नहीं चला सकते , इसे चलाने के लिए हर गांव के निवासियों को नीचे से प्रयास करने होंगे।

गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ग्रामीण स्वराज्य की जिस धारणा का बीजारोपण किया था , उसका प्रस्फुटन लम्बें समय बाद हुआ। इस बीच गांधी बिना प्रयोग के रह गये। पं॰ नेहरू के सामुदायिक विकास कार्यक्रम के भीतर ही पंचायती राज को रखा गया जिसके आशानुकूल फल प्राप्त नहीं हुये।

भारत में पंचायती राज संस्थाओं का अतीत रहा है। वैदिक युग में ग्रामों में राजनीतिक इकाई माना जाता था। महाभारत में ग्रामसभा का उल्लेख मिलता है। भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर 12 वीं सदी तक पल्लवों के शासकाल में ग्राम सभायें अपने - अपनें क्षेत्र में तत्कालीन स्थानीय व सामाजिक समस्याओं का हल खोजा करती थीं। जातिगत पंचायतों को तो परम्परा के रूप में कार्य करते व जाति बिरादरी के विभिन्न मामलों को निपटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते , अब तक देखा जा सकता है। किन्तु मुगलकाल एवं आगे अग्रेजी शासकों के केन्द्रीयकरण की नीति अपनाकर सामंतवाद को बढ़ावा देकर पंचायती व्यवस्था को प्रभावहीन कर दिया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने समय - समय पर अपने अधिवेशनों में पंचायतों को वास्ततिक स्वरूप में लाने व लोकजीवन से उन्हें जोड़न हेतु राजनीतिक प्रस्ताव पारित किये। आजादी के बाद राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ ही आर्थिक स्वतंत्रता व सामाजिक न्याय पर आधारित समाज की संरचना पर राष्ट्रनेताओं का ध्यान गया उन्हें एहसास था कि भारत की 80 प्रतिशत की आबादी ग्रामीण है जो कि गरीब एवं अशिक्षित है। संविधान के अनुभव में नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत पंचायती राज की स्थापना हेतु आश्वासन दिया गया किन्तु यह दायित्व राज्य सरकारों को सौंपा गया। इस दिशा में राज्यों द्वारा अपने - अपने ढंग से पचांयती राज व्यवस्था अपनाई गयी।

उत्तर प्रदेश ने सर्वप्रथम इसकी शुरूआत की , आगे गुजरात , महाराष्ट्र , राजस्थान , आंधप्रदेश आदि में इसका सफल क्रियान्वयन किया गया , किन्तु देश के अनेक भागों में इसका सफल प्रयोग न हो सकने से इस पर चिंता व्यक्त की गई , साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में पंचायतों की सार्थकता , अपरिहार्यता को भी स्वीकारा गया। इस हेतु समय - समय पर विभिन्न अध्ययनदलों व समितियों का गठन किया गया। इनमें 1957 वलवंतराय मेहता समिति , 1965 संतानम समिति , 1969 सादिक अली समिति आदि प्रमुख हैं , जिनके सुझावों , अनुशंसाओ के आधार पर विभिन्न राज्यों ने अपने - अपने अधिनियम पारित किये , जिनमें पंचायतों की स्थिति , गठन को लेकर एकरूपता का अभाव देखा गया।

एकस्तरीय पंचायतें जम्मू - कश्मीर , केरल में , तो द्विस्तरीय आसाम , उड़ीसा , हरियाणा में कार्यरत रहीं , जबकि बिहार , आन्ध्रप्रदेश , गुजरात , कर्नाटक , हिमाचल प्रदेश , महाराष्ट्र , तमिलनाडु , मध्यप्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतें कार्य करती रही हैं।

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