Social Sciences, asked by faizhns61926, 4 months ago

लोकतंत्रा में विपशक की भूमिका का वर्रण करो

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बीसवीं सदी में राजनीतिक विचारकों ने प्रश्न उठाना शुरू किया कि क्या जनसाधारण प्रतिदिन के जीवन में राजनीति में कोई भूमिका निभा सकते हैं? क्या सामान्य नागारिक, जो अपने जीविकोपार्जन में लगे रहते हैं, राजनीतिक भूमिका निभाने के लिए समय और शक्ति लगा सकते हैं? क्या जनसमूह बिना किसी प्रतिबंध के चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से अपनी भावनाओं का खुला प्रदर्शन करता है तो स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी? इन प्रश्नों के उत्तर में ही लोकतंत्र के अभिजनवादी और बहुलवादी सिद्धान्त विकसित हुए हैं।

प्रजातंत्र के सबंध में अभिजन सिद्धान्त का अभ्युदय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ इस सिद्धांत के प्रवर्त्तकों में विल्फ्रेडो पैरेटो, ग्रेटानोमोस्का, रॉबर्ट मिशेल्स और अमेरिकी लेखक जेम्स बर्नहाम तथा सी. राइट मिल्स प्रमुख हैं। इस सिद्धांत का मुख्य आधार यह मान्यता है कि समाज में दो तरह के लोग होते हैं- गिने चुने विशिष्ट लेग और विशाल जनसमूह। विशिष्ट लोग हमेशा शिखर तक पहुँचते हैं क्योंकि वे सारी अर्हताओं से सम्पन्न सर्वोत्तम लोग होते हैं। अभिजन वर्ग विशेष रूप से राजनीतिक अभिजन वर्ग, सारे राजनीतिक कृत्यों का निष्पादन करता है, सत्ता पर एकाधिकार कर लेता है और सत्ता से जुड़े सारे लाभ उठाता है। बहुसंख्यक समूह अभिजन वर्ग द्वारा मनमाने ढंग से नियंत्रित और निर्देशित होता है।

(1) लोग समान रूप से योग्य नहीं होते, अतः अभिजन और गैर-अभिजन का निर्माण अपरिहार्य है,

(2) अपनी उच्चतर योग्यताओं के बल पर अभिजनवर्ग सत्ता-नियंत्रक एवं प्रभविष्णु बन जाता है,

(3) अभिजनवर्ग अनवरत एक जैसा नहीं रहता। इस वर्ग में नए लोग शामिल होते हैं और पुराने लोग बाहर हो जाते है,

(4) बहुसंख्यक जनसमुदाय, जो गैर-अभिजनवर्ग का निर्मायक है, में अधिकांश भावशून्य, आलसी और उदासीन होते हैं, इसलिए एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग का होना आवश्यक है जो नेतृत्व प्रदान करे और

(5) आज के युग में शासक अभिजनवर्ग में मुख्य रूप से बुद्धिजीवी, औद्योगिक प्रबंधक और नौकरशाह होते हैं।

लोकतंत्र के अभिजन सिद्धान्त का सुव्यवस्थित प्रतिपादन सर्वप्रथम जोसेफ शुंप्टर ने अपनी पुस्तक ‘कैपिटलिज्म, सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी‘ (पूंजीवाद, समाजवाद और लोकतंत्र, 1942) में किया। बाद में सार्टोरी, रॉबर्ट डाल, इक्सटाईन, रेमंड अरोन, कार्ल मैन हियुमंड, सिडनी वर्बा आदि ने अपनी रचनाओं में इस मत का समर्थन किया। लोकतंत्र की यह अवधारणा इस मान्यता पर आधारित है कि जनसंख्या का विशाल भाग अक्षम और तटस्थ होता है और वह योग्यता और क्षमता के आधार पर कुछ लोगों का चुनाव करता है जो राजनीतिक दल का नियंत्रित और संचालित करते हैं। बहुसंख्यक लोग जीविका कमाने में व्यस्त रहते हैं। उन्हें राजनीतिक मामलों में न तो अभिरूचि होती है, न समझ। इसलिए वे अभिजनवर्ग से कुछ लोगों का चयन कर लेते हैं और उनके अनुयायी बन जाते हैं। अभिजन सिद्धांत के अनुसार आज के जटिल समाज में कार्यक्षमता के लिए विशेषज्ञता आवश्यक है और विशेषज्ञों की संख्या हमेशा कम ही होती है। अतः राजनैतिक नेतृत्व ऐसे चुनिंदा सक्षम लोगों के हाथ में होना आवश्यक है। यह सिद्धान्त लोगो की अतिसहभागिता को भी खतरनाक मानता है, क्योंकि तानाशाही प्रवृत्ति का हिटलर जैसा कोई ताकतवर नेता सत्ता प्राप्त करने के लिए जनसमूह को लामबंद कर लोकतंत्र को ही खत्म कर दे सकता है जिसका सीधा अर्थ है मौलिक स्वतंत्रताओं का अंत। इसलिए उनका दावा है कि लोकतांत्रिक और उदारवादी मूल्यों को बचाए रखने के लिए जनसमूह को राजनीति से अलग रखना जरूरी है। अभिजन सिद्धान्त के अनुसार आम जनता के द्वारा वास्तविक शासन हो ही नहीं सकता। शासन हमेशा जनता के लिए होता है, जनता के द्वारा कभी नही, क्योंकि जनता जिन्हें प्रतिनिधि चुनती है वे अभिजनवर्ग के ही होते हैं। दूसरे शब्दों में लोकतंत्र का अर्थ है अभिजन वर्गां के बीच प्रतिद्वंद्विता और जनता द्वारा यह निर्णय कि कौनसा अभिजन ऊपर शासन करेगा। इस प्रकार, लोकतंत्र मात्र एक ऐसी कार्यप्रणाली है जिसके द्वारा छोटे समूहों में से एक जनता के न्युनतकम अतिरिक्त समर्थन से शासन करता हैं अभिजनवादी सिद्धांत यह भी मानता है कि अभिजन वर्गों- राजनीतिक दलों, नेताओं, बड़े व्यापारी घरानों के कार्यपालकों, स्वैच्छिक संगठनों के नेताओं और यहां तक कि श्रमिक संगठनों के बीच मतैक्य आवश्यक है ताकि लोकतंत्र की आधारभूत कार्यप्रणाली को गैर जिम्मेदार नेताओं से बचाया जा सके। इससे यह स्पष्ट होता है कि बाह्य तौर पर तो अभिजन वर्ग सिद्धान्त लोकतंत्र के विचार को अधिक व्यवहारवादी और आनुभविक बनाने का दावा करती है, लेकिन अंततः यह लोकतंत्र को एक ऐसे रूढ़िवादी राजनीतिक सिद्धांत में बदल देता है जो उदारवादी अथवा नव-उदारवादी यथास्थितिवाद से संतुष्ट हो जाता है और इसके स्थायित्व को बनाए रखना चाहता है।

अभिजनवाद की कई विचारकों ने आलोचना की है जिनमें सी. बी. मैक्फर्सन, ग्रीम डंकन, बैरी होल्डन, रॉबर्ट डाल आदि प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त के विरुद्ध मुख्य आपत्तियां निम्नलिखित हैं:

(1) अभिजनवाद लोकतंत्र का अर्थ ही विकृत कर देता है और इसकी आधारभूत विशेषताओं की उपेक्षा कर इसे स्वेच्छाचारी बना देता है। यदि जनता का काम प्रतिनिधियों को चुनना भर ही है तो शासन संचालन में उनके पास बोलने-कहने को अधिकार नहीं रह जाता और ऐसी स्थिति में प्रणाली अलोकतांत्रिक बन जाती है।

(2) यह सिद्धांत लोकतंत्र की परंपरागत पुरातन अवधारणा के नैतिक उद्देश्य को समाप्त कर देता है पुरातन अवधारणा के अनुसार लोकतंत्र का लक्ष्य मानवजाति का उन्नयन है, लेकिन अभिजन सिद्धान्त इस नैतिक पक्ष की अवहेलना कर देता है और पूरी स्थिति अल्पसंख्यक अभिजनवर्ग के शासन की निष्क्रिय स्वीकृति हो जाती है।

(3) अभिजन सिद्धान्त सहभागिता, जो लोकतांत्रिक शासन का केन्द्रीय तत्त्व है, का महत्त्व घटा देता है और दावा करता है कि सहभागिता संभव है ही नहीं। इस तरह जनता द्वारा शासन असंभव हो जाता है।

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