लेखिका मृदुला गर्ग ने अपनी माँ को बेचारी क्यों कहा ?
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हमारे घर रहने तभी आए जब गुल स्कूल से निकल, कॉलेज पहुँची। यानी एक फ़स्ल खत्म हुआ, दूसरा शुरु। हम मशाल हाथ में ले,मामाजी का उलट ढ़ूंढ़ने निकलते तो मुझे यक़ीन है, जुग्गी चाचा से उम्दा नमूना नहीं मिल सकता था। उनके साथ ने कई तरह हमारी ज़िन्दगी पर असर डाला। कुछ खुशनुमा, कुछ बदनुमा; ज़िन्दगी की मानिन्द।
उनके आते ही पहला खुशगवार बदलाव राखी के त्योहार पर हुआ। हर साल की तरह, चचेरे भाई, मिक्की-टिक्कू के इंतज़ार में मुँह लटकाए,गुल और मैं, संकरे बरामदे की सीढ़ियों पर बैठीं,पड़ोस की जगत ताई की घड़ियाली आँसू भरी हमदर्दी झेल रही थीं। तभी हाथ मे दो राखियाँ पकड़े, जुग्गी चाचा नमूदार हुए और डाँट कर बोले,’कोई तमीज़ तहज़ीब है कि नहीं तुम में! राखी भी भाई ले कर आए तब तुम नकचढ़ी लड़कियाँ, बाँधने की ज़हमत उठाओगी।’
वे जब बोलते इतनी ऊँची आवाज़ में कि पूरा मौहल्ला सुने। ताईजी को उसकी ज़रूरत नहीं थी। वे चाँदनी चौक में,सुंई का गिरना सुनने का माद्दा रखती थीं। जवाब हमारी बजाय उन्होंने दिया। बेचारी!सगा भाई है नहीं,हर साल रोती-बिसूरती चचेरे भाइयों की राह देखती बैठी रहती हैं। उन्हें कौन आने की जल्दी है;अपनी बहिन से राखी बँधवा, खा-पी कर फ़र्ज़ निभाने, दुपहर बाद चले आते हैं। अपना भाई अपना होता है, दूसरों का दूसरा। रहें बैठी भूखी-प्यासी, उनकी बला से।"
उनकी बात आधी सच थी। हम इंतज़ार में बैठी ज़रूर थीं पर भूखी-प्यासी नहीं। इतना प्यार हमें चचेरे भाइयों से नहीं था। ऐसी रीत भी हमारे यहाँ नहीं थी। माँ को भूखे रहने का सुझाव देने की हिम्मत किसी में न थी। दुर्वासा समान गुस्सेबाज़ बाबाजी में भी नहीं। वे इतनी नाज़ुकजान थीं कि दादी कहती थीं, हमारी बहू ऐसी है कि धोई-पोंछी और छींके टांग दी। ससुराल में किसी की जुर्रत न हुई कि उनसे,रसोई में जाकर कुछ पकाने को कहे या उपवास-व्रत करने को। ख़ुशक़िस्मती से हम जैन थे इसलिए पति-पुत्र के लिए करवा चौथ,अहोई वग़ैरह के व्रत रखने का रिवाज न था। जो व्रत जैनी रखते, निर्जल और चौबीस घण्टे चलने वाले होते क्योंकि सूरज डूबने पर खाना मना था। सिर्फ़ एक बार चाव में आकर दादी के साथ, माँ ने निर्जल व्रत रख लिया था। शाम घिरने से पहले, चक्कर खा बेहोश हो गई थीं। दुर्वासा बाबाजी ने दादी को, बहू से व्रत करवाने की हिन्सा के लिए इतना लताड़ा कि वे भी बेहोश होने को आईं। माँ के सिर में बादाम रोगन की मालिश करके उन्हें होश में लाया गया था। बाहोश हुईं तो जैन मंज़ूरी के खिलाफ़, सूरज ढलने के काफ़ी बाद, बादाम का शर्बत पिला कर दुरुस्त किया गया था। मामाजी को पता चला था तो वे अलग भौंके-गांजे थे। उन्हें राखी बाँधने के इंतज़ार में माँ उपासी रहतीं तो बवंडर उठ खड़ा होता। वह दिन था और आज का दिन। माँ ने न कभी खुद व्रत किया न हमसे करने को कहा।
सच कहूँ, मुझे न राखी बाँधने में खास दिलचस्पी थी, न सगा भाई न होने पर रोंदू रंजिश। पर दुनिया का मानना था, होनी चाहिए। गुल उसके झाँसे में आ गई थी। उसकी सहेलियाँ हर राखी के बाद, भाइयों से मिले तोहफ़ों की नुमाइश करने आया करती थीं। किसी के दो भाई थे, किसी के तीन। एक मोहतरमा के पूरे पाँच थे।वे इकलौती बहिन थीं; राखी और भाई दूज के बाद, पूरी झाड़फ़ानूस बनी नमूदार होतां। जलन क्योंकर न होती?
”यार मोगरा,मेरा खयाल था,तुम जुग्गी चाचा का क़िस्सा बयान करने जा रही हो, यह क्या रोज़ा उपवास ले बैठीं?”
”तुम भी…घुसी चली आती हो गुफ़्तगू में। यह ज़िन्दगी है, तुम्हारा उपन्यास नहीं कि ठोक पीट कर एक जानिब चलाती रहूँ।”
”चलो, हांको इधर-उधर की।”
”माई लॉर्ड, ये तमाम बातें एक दूसरे से माक़ूल तरीके से जुड़ी हुई हैं, कुछ देर में साबित हो जाएगा।”
”ठीक है, पंचायती छोड़ो। क़िस्सा कहो।”
”मैं सरासर जुग्गी चाचा पर मर्कूज़ थी,माई लॉर्ड। जगत ताई का जवाब हमने नहीं,जुग्गी चाचा ने दिया,उसी बब्रूवाहनी सुर में।”