Hindi, asked by pawankumar05041982, 9 months ago

लेखक घुमक्कड़ जीवन का उद्देश्य नहीं मानते हैं? *


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Answered by BrainlyPrince727
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घुमक्कड़ की दुनिया में भय का नाम नहीं है, फिर मृत्‍यु की बात कहना यहाँ अप्रासंगिक-सा मालूम होगा। तो भी मृत्‍यु एक रहस्‍य है, घुमक्कड़ को उसके बारे में कुछ अधिक जानने की इच्‍छा हो सकती है और मनुष्‍य को निर्बलताएँ कभी-कभी उसके सामने भी आती हैं। मृत्‍यु अवश्यंभावी है - ''जातस्‍य हि ध्रुवो मृत्‍यु:।''

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Answered by madhunisha05
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Answer:

घुमक्कड़-शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

घुमक्कड़ की दुनिया में भय का नाम नहीं है, फिर मृत्‍यु की बात कहना यहाँ अप्रासंगिक-सा मालूम होगा। तो भी मृत्‍यु एक रहस्‍य है, घुमक्कड़ को उसके बारे में कुछ अधिक जानने की इच्‍छा हो सकती है और मनुष्‍य को निर्बलताएँ कभी-कभी उसके सामने भी आती हैं। मृत्‍यु अवश्यंभावी है - ''जातस्‍य हि ध्रुवो मृत्‍यु:।'' एक दिन जब मरना ही है, तो यही कहना है -

''गृहित इव केशेषु मृत्‍युना धर्ममाचरेत्।''

मृत्‍यु की अनिवार्यता होने पर भी कभी-कभी आदमी को कल्‍पना होने लगती है - काश! यदि मृत्‍यु न होती। प्राणियों में, यद्यपि कहा जाता है सबके लिए ही मृत्‍यु है, तो भी कुछ प्राणी मृत्युंजय हैं। ऐसे प्राणी अंडज, उष्‍मज और जरायुजों में नहीं मिलते। मनुष्‍य का शरीर अरबों छोटे-छोटे सेलों (जीवकोषों) से मिलकर बना है, किंतु कोई-कोई प्राणी इतने छोटे हैं कि वह केवल एक सेल के होते हैं। ऐसे प्राणियों में जन्‍म और वृद्धि होती है, किंतु जरा और मृत्‍यु नहीं होती। आमोयबा एक ऐसा ही प्राणी समुद्र में रहता है, जो जरा और मृत्‍यु से परे है, यदि वह अकालिक आघात से बचा रहे। आमोयबा का शरीर बढ़ते-बढ़ते एक सीमा तक पहुँचता है, फिर वह दो शरीरों में बँट जाता है। दोनों शरीर दो नए आमोयबों के रूप में बढ़ने लगते हैं। मनुष्‍य आमोयबा की तरह विभक्त होकर जीवन आरंभ नहीं कर सकता, क्‍योंकि वह एक सेल का प्राणी नहीं है। मीठे पानी में एक अस्थिरहित प्राणी पल्‍नारियन मिलता है, जो आध इंच से एक इंच तक लंबा होता है। पल्‍नारियन में अस्थि नहीं है। अस्थि की उसी तरह हास-वृद्धि नहीं हो सकती जैसे कोमल मांस की। जब हम भोजन छोड़ देते है, तब भी अपने शरीर के मांस और चर्बी के बल पर दस-बारह दिन तक हिल-डोल सकते हैं। उस समय हमारा पहले का संचित मांस-चर्बी भोजन का काम देती है। पल्‍नारियन को जब भोजन नहीं मिलता तो उसका सारा शरीर आवश्‍यकता के समय के लिए संचित भोजन-भंडार का काम देता है, आहार न मिलने पर अपने शरीर के भीतर से वह खर्च करने लगता है। उसके शरीर में हड्डी की तरह का कोई स्‍थायी ढाँचा नहीं है, जो अपने को गलाकर न आहार का काम दे, और उलटे जिसके लिए और भी अलग आहार की आवश्‍यकता हो। पल्‍नारियन आहार न मिलने के कारण अपने शरीर को खर्च करते हुए छोटा भी होने लगता है, छोटा होने के साथ-साथ उसका खर्च भी कम होता जाता है। इस तरह वह तब तक मृत्‍यु से पराजित नहीं हो जाता, जब तक कि महीनों के उपवास के बाद उसका शरीर उतना छोटा नहीं दो जाता, जितना कि वह अंडे से निकलते वक्‍त था। साथ ही उस जंतु में एक और विचित्रता है - आकार के छोटे होने के साथ वह अपनी तरुणाई से बाल्‍य की ओर - चेष्‍टा और स्‍फूर्ति दोनों में - लौटने लगता है। उपवास द्वारा खोई तरुणाई को पाने के लिए कितने ही लोग लालायित देख पड़ते हैं और इस लालसा के कारण वह बच्‍चों की-सी बातों पर विश्‍वास करने के लिए तैयार हो जाते हैं। मनुष्‍य में पल्‍नारियन की तरह उपवास द्वारा तरुणाई पाने की क्षमता नहीं है। विद्वानों ने उपवास-चिकित्‍सा कराके बहुत बार पल्‍नारियन को बाल्‍य और प्रौढ़ावस्‍था के बीच में घुमाया है। जितने समय में आयु के क्षय होने से दूसरों की उन्‍नीस पीढ़ियाँ गुजर गईं, उतने समय में एक पल्‍नारियन उपवास द्वारा बाल्‍य और तरुणाई के बीच घूमता रहा। शायद बाहरी बाधाओं से रक्षा की जाय तो उन्‍नीस क्या उन्‍नीस सौ पीढ़ियों तक पल्‍नारियन को उपवास द्वारा जरा और मृत्‍यु से रक्षित रखा जा सकता है। मनुष्‍य का यह भारी भरकम स्‍थायी हड्डियों और अस्‍थायी मांस वाला शरीर ऐसा बना हुआ है कि उसे जराहीन नहीं बनाया जा सकता, इसीलिए मानव मृत्‍युंजय नहीं हो सकता।

मृत्‍युंजय की कल्‍पना गलत है, किंतु सवा सौ-डेढ़ सौ साल जीने वाले आदमी तो हमारे यहाँ भी देखे जाते हैं। बहुत-से प्रौढ़ या वृद्ध जरूर चाहेंगे कि अच्छा होता, यदि हमारी आयु डेढ़ सौ साल की ही हो जाती। वह नहीं समझते कि डेढ़ सौ साल की आयु एकाध आदमी की होती तो दूसरी बात थी, किंतु सारे देश में इतनी आयु होनी देश के लिए तो भारी आफत है। डेढ़ सौ साल की आयु का मतलब है आठ पीढ़ियों तक जीवित रहना। अभी तक हमारे देश की औसत आयु तीस बरस या डेढ़ पीढ़ी है, और हर साल पचास लाख मुँह हमारे देश में बढ़ते जा रहे हैं। यदि लोग आठ पीढ़ी तक जीते रहे, तब तो दो पीढ़ी के भीतर ही हमारे मैदानों और पहाड़ों में सभी जगह घर ही बन जाने पर भी लोगों के रहने के लिए जगह नहीं रह जायगी, खाने कमाने की भूमि की तो बात ही अलग।

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