लेखक को कौन सी विडंबना चुभ रही है? *
Answers
hii mate
यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
Answer:
आजकल तो एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं । लेखक को प्रेमचंद का फटा जूता देखकर यही विडंबना बड़ी तीव्रता से चुभी क्योंकि प्रेमचंद जैसे महान कथाकार , उपन्यास सम्राट , युग प्रवर्तक के पास पहनने के लिए अच्छे जूते भी नहीं थे।
Explanation:
I have answered in context of the chapter " Premchand Ke Fate Joote" (Class 9 Kshitij NCERT Hindi).