Hindi, asked by biswaspami455, 3 months ago

लेखक तुलसीदास एवं केशवदास की तुलना द्वारा क्या साबित करना चाहते हैं ?​

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Answered by Munshikaif23
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Explanation:

तुलसी और कबीर के निकष अलग

क्या यह संभव है कि एक कालखंड में या अलग अलग कालखंड में दो या तीन कवि महान हो सकते हैं? क्या एक कवि को दूसरे कवि के निकष पर कसना और फिर उनका मूल्यांकन करना उचित है ? एक कवि के पदों में से दो एक पदों को उठाकर उसको प्रचारित कर देना और दूसरे कवि के चंद पदों के आधार पर उनको क्रांतिकारी ठहरा देना कितना उचित है? पर हमारे देश के दो महान कवियों के साथ ये सब किया गया। तुलसीदास को नीचा दिखाने के लिए कबीर को उठाने का सुनियोजित खेल खेला गया। उपर जितने भी सवाल उठाए गए हैं अगर हम उनके उत्तर ढूंढते हैं तो यह खेल साफ हो जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक में तुलसीदास को लेकर अपनी मान्यताओं को स्थापित किया था। जब बीसबीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी आए तो उनके सामने यह चुनौती थी कि वो खुद आचार्य शुक्ल से अलग दृष्टिवाले आलोचक के तौर पर खुद को स्थापित करें। खुद को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक था कि वो कोई नई स्थापना लेकर आते या पहले से चली आ रही स्थापनाओं को चुनौती देते । द्विवेदी जी के सामने शुक्ल जी की आलोचना थी जिसमें उन्होंने तुलसी को स्थापित किया था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने माहौल के हिसाब से कबीर की व्याख्या की और उनको क्रांतिकारी कवि सिद्ध किया। इस क्रम में उन्होंने तुलसीदास को प्रत्यक्ष रूप से कमतर आंकने की कोशिश नहीं की, लेकिन तुलसीदास पर गंभीरता से स्वतंत्र लेखन नहीं करके उनको उपेक्षित रखा । कालांतर में हिंदी साहित्य में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्यों का साहित्य पर बोलबाला रहा और उन सब लोगों ने द्विवेदी जी की स्थपना को मजबूत करने के लिए कबीर को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अलग अलग तरह से लेखन किया और तुलसी को उपेक्षित ही रहने दिया आ फिर जहां मौका मिला उनको नीचा दिखाने का काम किया। विनांद कैलवर्त ने अपनी पुस्तक- ‘द मिलेनियम कबीर वाणी, अ कलेक्शन आफ पदाज़’ में साफ तौर पर लिखा भी है- ‘निहित स्वार्थों ने कबीर को बहुत जल्दी हथिया लिया। सत्रहवीं सदी में गोरखपंथियों और रामानंदियों से लेकर बीसीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे ब्राह्मणों तथा अन्य सामाजिक समूहों तक ने कबीर का इस्तेमाल अपने अपने विचारधारात्मक उद्देश्यों और फायदों के लिए किया।‘ संभव है कि विनांद कैलवर्त की स्थापनाएं अतिरेकी हों लेकिन इस बात से कहां इनकार किया जा सकता है कि कबीर का इस्तेमाल ‘विचारधारात्मक उद्देश्यों और फायदों के लिए किया गया’।

कबीर को क्रांतिकारी दिखाने और तुलसी को परंपरावादी साबित करने की होड़ में कुछ क्रांतिकारी लेखकों ने तुलसीदास को वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक, नारी और शूद्र विरोधी करार देकर उनकी घोर अवमानना की। रामचरित मानस की एक पंक्ति ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ को पकड़कर तुलसी को कलंकित करने की कुत्सित कोशिश की गई। तुलसीदास की कविता की व्याख्या करनेवाले आलोचक या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं जिनसे उनकी छवि स्त्री विरोधी और वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक की बनती है। तुलसीदास को स्त्री विरोधी करार देनेवाले मानस में अन्यत्र स्त्रियों का जो वर्णन है उसकी ओर देखते ही नहीं हैं। एक प्रसंग में तुलसीदास कहते हैं – कत विधि सृजीं नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं । इसी तरह अगर देखें तो मानस में पुत्री की विदाई के समय के प्रसंग में कहा गया है- बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी, कहहिं बिरंची रचीं कत नारी। इसके अलावा तुलसी साफ तौर पर कहते हैं- रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा। इन पदों को आलोच्य पद के सामने रखकर तुलसीदास का मूल्यांकन किया जाना चाहिए । नारी के अलावा जब उनको शूद्रों का विरोधी कहा जाता है तब भी खास विचार के पोषक आलोचक तुलसी के उन पदों को भूल जाते हैं जहां वो रामराज्य की बात करते हुए सबकी बराबरी की बात करते हैं। तुलसी जब रामराज्य की बात करते हैं तो वो चारों वर्णों के सरयू नदी के तट पर साथ स्नान करने का वर्णन करते हैं जिसकी ओर क्रांतिकारी लेखकों का ध्यान जाता नहीं है। वो कहते हैं – राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहॉं बरन चारिउ नर। यहां यह खेल तुलसीदास तक ही नहीं चला बल्कि निराला को लेकर भी इस तरह का खेल खेला गया। निराला ने कल्याण पत्रिका के भक्ति अंक से लेकर कई अन्य अंकों में जो लेख लिखे थे उनको ओझल कर दिया गया। नई पीढ़ी के पाठकों को इस बात का पता ही नहीं है कि भक्त निराला ने किस तरह की रचना की।

Answered by gohrmohangmailcom
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लेखक तुलसीदास एवं केशवदास की तुलना द्वारा क्या साबित करना चाहते हैं?

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