lahasa ki aur saransh
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okkk mate
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इस पाठ के लेखक राहुल सांकृत्यायन जी हैं।
“ल्हासा की ओर” एक यात्रा वृतांत हैं जिसमें लेखक ने अपनी पहली तिब्बत यात्रा का वर्णन बहुत शानदार ढंग से किया हैं । लेखक ने यह यात्रा सन् 1929-30 में नेपाल के रास्ते की थी। क्योंकि भारत उस समय अंग्रेजों का गुलाम था और भारतीयों को तिब्बत यात्रा में जाने की अनुमति नहीं थी। इसीलिए लेखक ने यह यात्रा छद्म वेश धारण कर (वेश बदलकर) की थी। वो अपने असली रूप में न जाकर भिखारी के वेश में तिब्बत यात्रा में गये थे।
Lhasa Ki Aur Class 9 Summary
लेखक ने जब तिब्बत की यात्रा की थी तब फटी–कलिङ्पोङ् का रास्ता नहीं बना था। उस समय नेपाल से तिब्बत जाने का एक ही रास्ता था। वैसे यह मुख्यत: व्यापारिक और सैनिक रास्ता था। जिससे होकर व्यापारी व सैनिक आते जाते थे । परन्तु इसी रास्ते से नेपाल व भारत के लोग भी आते जाते थे। इसीलिए लेखक ने इसे उस समय का मुख्य रास्ता बताया है।
लेखक कहते हैं कि रास्ते में जगह-जगह पर चीनी फौजियों की चौकियों व किले बने हुए थे। जिनमें कभी चीनी सैनिक रहा करते थे। लेकिन अब वो पूरी तरह से टूट चुके हैं और वीरान भी हैं। लेकिन उन किलों के कुछ हिस्सों में वहां के किसानों ने अपना बसेरा बना लिया हैं। इसीलिए उन किलों के कुछ हिस्से आबाद थे।
ऐसे ही एक परित्यक्त चीनी किले (छोड़ा हुआ किला) में लेखक व उनके मित्र चाय पीने के लिए रुके। तब उन्होंने देखा कि उस समय तिब्बत में जाति–पाति , ऊंच-नीच , छुआछूत का भेद भाव नहीं था और न ही वहाँ की महिलाएं परदा करती थी । हाँ चोरी के डर से निम्न स्तर के भिखारियों को घरों में घुसने नहीं दिया जाता था।
मगर अपरिचितों के घरों के अंदर आने-जाने में कोई रोकटोक नहीं थी।अपरिचितों द्वारा चाय का सामान देने पर घर की महिलायें (बहु या सास) उन्हें चाय बनाकर दे देती थी। वहां पर मक्खन व नमक की चाय पी जाती हैं।
परित्यक्त चीनी किले से चाय पीने के बाद जब वो आगे चलने लगे तो एक व्यक्ति ने उनसे दो चिटें (प्रवेश पत्र / Permission Letter) राहदारी माँगी। ये चिटें उन्हें गांव के एक पुल को पार करने के लिए देनी पड़ती थी। पुल पार करने के बाद वो थोड़ला के पहले पड़ने वाले आखिरी गाँव में पहुँच गए।
यहाँ सुमति (राहुल के बौद्ध भिक्षु दोस्त) की पहचान होने के कारण भिखारी के भेष में होने के बाद भी उन्हें रहने को अच्छी जगह मिली। लेखक कहते हैं कि पांच साल बाद जब वो इसी रास्ते से वापस लौट रहे थे तब उन्हें रहने की जगह नहीं मिली थी और उन्हें एक झोपड़ी में ठहरना पड़ा था। जबकि वे उस वक्त भिखारी नहीं बल्कि भद्र (अच्छे) यात्री के वेश में थे।
लेखक की यात्रा का अगला लक्ष्य डाँडा (पहाड़) थोङ्ला पार करना था। जो सबसे कठिन हिस्सा था। क्योंकि डाँडे तिब्बत में सबसे खतरे की जगह थी। 1600 -1700 फिट की ऊंचाई पर होने के कारण दोनों ओर गाँव का नामोनिशान नही था।
डाकुओं के छिपने की यह सबसे सुरक्षित जगह थी। ओर सरकार भी इस तरफ लापरवाह थी। इसीलिए यहाँ अक्सर लूटपाट व हत्यायें हो जाती थी। चूँकि वे लोग भिखारी के वेश में थे। इसलिए उन्हें कोई चिंता नहीं थी। परन्तु मन में डर बना था। यहां हथियार का कानून भी लागू नहीं था। इसीलिए लोग अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखते थे।
लेकिन पहाड़ की उस दुर्गम चढ़ाई में जाना मुश्किल था। इसीलिए दूसरे दिन उन्होंने डाँडे की चढ़ाई घोड़े से की। पहाड़ के ऊपर पहुंच कर उन्होंने देखा कि दक्षिण–पूरब ओर बिना बर्फ और हरियाली के नंगे पहाड़ दिखाई दे रहे थे तथा उत्तर की ओर पहाड़ों पर कुछ बर्फ दिखाई दे रही थी।वहां स्थानीय देवता का मंदिर भी बना था।
पहाड़ से उतरते समय लेखक का घोडा थोड़ा धीरे चलने लगा जिससे उनके साथी आगे निकल गए। वो रास्ता भटक गए और वे बाएं रास्ते की ओर (गलत रास्ते ) डेढ़ मील आगे चल दिए। बाद में लोगों से पूछ कर वापस सही रास्ते (लङ्कोर का रास्ता दाहिने के तरफ ) में आ तो गये। मगर तब तक काफी देर हो गयी थी। जिससे उनके मित्र सुमति नाराज हो गए परन्तु जल्दी ही उनका गुस्सा ठंडा हो गया और वे लङ्कोर में एक अच्छी जगह पर ठहरे।
उसके बाद वो तिट्टी के मैदान में पहुंचे जो पहाड़ों से घिरा एक टापू था। जिसके सामने एक छोटी सी पहाड़ी दिखाई पड़ती थी जिसका नाम तिट्टी–समाधि–गिटी था। आसपास के गाँवों में सुमति के बहुत परिचित थे। इसीलिए वो उनसे मिलना चाहते थे और उन्हें बोध गया से लाये कपड़ों के गंडे भी देना चाहते थे। परन्तु लेखक ने उन्हें मना कर दिया और ल्हासा पहुंचकर पैसे देने का वादा किया । सुमति मान गए और उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया।
उन्होंने सुबह चलना शुरू नहीं किया था। इसीलिए उन्हें कड़ी धूप में आगे बढ़ना पड़ रहा था।कुली न मिलने पर वे अपना सामान पीठ पर लादे और हाथ में डंडा लिए चल रहे थे। सुमति यहां एक और यजमान से मिलना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बहाना कर टोकर विहार की ओर चलने को कहा।
तिब्बत की जमीन छोटे–बड़े जागीरदारों के हाथों में बँटी थी । इन जागीरों का बड़ा हिस्सा बौद्ध मठों को भी जाता था ।अपनी–अपनी जागीर में हर जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता था जिसके लिए मजदूर उन्हें बेगार में मिल जाते थे। बौद्ध भिक्षु भी खेती की निगरानी करते थे।
लेखक शेकर की खेती के मुखिया न्मसे (बौद्ध भिक्षु) से मिले। उनके मठ में एक अच्छा मंदिर था जिसमें बुद्ध वचन की हस्तलिखित 103 पोथियाँ रखी थीं। लेखक इन्हें पढ़ने में व्यस्त हो गए। इसी दौरान सुमति ने आसपास के अपने यजमानों से मिलकर आने के लिए लेखक से पूछा , जिसे लेखक ने खुशी खुशी मान लिया। दोपहर तक सुमति वापस आ गए।
चूँकि तिट्टी वहां से ज्यादा दूर नहीं था इसीलिए उन्होंने अपना सामान पीठ पर उठाया और न्मसे से विदा लेकर आगे चल दिए।
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