lakshman ka anusar manushta par kis kis ka shran hota ha ? sapashat kinaya<br />ki jaya
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नाथ संभुधनु भंजनिहारा।
होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही।
सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥
हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-॥1॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई।
अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा।
सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥2॥
सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है॥2॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।
न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने।
बोले परसुधरहि अपमाने॥3॥
वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-॥3॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू।
सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥4॥
हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥4॥
रे नृप बालक काल बस
बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु
बिदित सकल संसार॥271॥
अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥271॥
लखन कहा हँसि हमरें जाना।
सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें।
देखा राम नयन के भोरें॥1॥
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था॥1॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू।
मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा।
रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥2॥
फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥2॥
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही।
केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही।
बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥
मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥3॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही।
बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा।
परसु बिलोकु महीपकुमारा॥4॥
अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख!॥4॥
मातु पितहि जनि सोचबस
करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन
परसु मोर अति घोर॥272॥
अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥272॥
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।
अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू।
चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥1॥
लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं॥1॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।
जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना।
मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥2॥
यहाँ कोई कुम्हड़े की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगे की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था॥2॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी।
जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई।
हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥3॥
भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती॥3॥