लघु कथा- प्रकृति का दुख
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जरा देखो!वक्त के गुलजार
लिहाजा नहीं मनुष्य को
प्रकृति कल तक खुश थी।
परन्तु आज कुछ-कुछ
यूँ नजर लग गई।
यूँ उस परिदों की जो
अपने को कर्ता समझ
कर हमें ठगा दिया
मेरे भी कान-भरे
किसी ने
कल तक मैं रो रही थी।
मेरा दर्द न समझा
किसी ने प्रकृति
लेकिन आज तुम रो रहें हो
कोरोना
जीव बड़ा दुखी हैं
स्वयं निकला था वह विश्व विजय के गढ़ को फतह करने ।
पापी वह विश्वव्यापी स्वयंमितघाति
अरें ! उसके न लगती छुरी छाती में
कहें विक्रम राजपुरोहित मूर्ख[शत्रु]
भला क्या समझे लिहाजा!
उसे तो दुह भाँति राजी राख्यो पर!
आज वह शक्ल विश्व विश्वासघाती...??
पढ़ा हमसें कुछ ज्यादा पाठी ।।
Heya mate !
सड़कों, बगीचों --वातावरण में रंग ही रंग बिखरे पड़े थे। रंगों से विभोर भावनाएं भी दिनचर्या की ओर मुड़ गई थीं। बलकार के बगीचे के कोने में कुछ फूल गर्दन उठाये चारों ओर निहार रहे थे। होली के रंग एक दूसरे पर डालते समय बहुत सी क्यारियां बलकार के दोस्तों के पैरों तले कुचली गईं थीं।
hope it helps ❤️