Hindi, asked by parameshavree, 9 months ago

लहर कविता के आधार पर जयशंकर प्रसाद की कविताओं का काव्य सौंदर्य बताइए​

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Answered by guptapreeti051181
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Answer:

छायावाद के प्रमुख स्तम्भों में से एक जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को हुआ था। प्रसाद जी ने अपनी शुरुआती रचनाओं को ब्रज भाषा में लिखा लेकिन बाद में हिन्दी की खड़ी बोली को अपना लिया जिसमें उनकी रचना में संस्कृत शब्दों की बहुलता थी। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी, आंसू और लहर जैसी रचनाएं लिखीं तो स्कंदगुप्त और चंद्रगुप्त जैसे नाटक भी लिखे। पढ़ें उनकी लहर काव्यसंग्रह से कुछ चुनिंदा रचनाएं

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी।

इस गम्भीर अनन्त नीलिमा मे असंख्य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास।

तब भी कहते हो-कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

किन्तु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह बिडम्बना! अरी सरलते तेरी हंसी उड़ाऊं मैं

भूले अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊं मैं ।

उज्जवल गाथा कैसे गाऊं मधुर चांदनी रातों की।

अरे खिलखिलाकर हंसते होने वाली उन बातों की ।

मिला कहां वह सुख जिसका स्वप्न देखकर जाग गया?

आलिंगन मे आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया ?

जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में

अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक का पन्था की।

सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?

छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूं ?

क्या यह अच्छा नहीं कि औरों को सुनता मैं मौन रहूं?

सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म कथा?

अभी समय भी नहीं-थकी सोई हैं मेरी मौन व्यथा।

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ले चल वहां भुलावा देकर

ले चल वहां भुलावा देकर

मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।

जिस निर्जन में सागर लहरी,

अम्बर के कानों में गहरी,

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-

तज कोलाहल की अवनी रे ।

जहां सांझ-सी जीवन-छाया,

ढीली अपनी कोमल काया,

नील नयन से ढुलकाती हो-

ताराओं की पांति घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में,

विश्व चित्र-पट चल माया में,

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-

दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।

श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से

जहां सृजन करते मेला से,

अमर जागरण उषा नयन से

बिखराती हो ज्योति घनी रे

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मेरी आंखों की पुतली में

मेरी आंखों की पुतली में

तू बन कर प्रान समां जा रे

जिससे कण कण में स्पंदन हो,

मन में मलायानिल चंदन हो,

करुणा का नव अभिनन्दन हो-

वह जीवन गीत सुना जा रे!

खिंच जाय अधर पर वह रेखा-

जिसमें अंकित हों मधु लेखा,

जिसको यह विश्व करे देखा,

वह स्मिति का चित्र बना जा रे!

अरे कहीं देखा है तुमने

अरे कहीं देखा है तुमने

मुझे प्यार करने वालो को?

मेरी आंखों में आकर फिर

आंसू बन ढरने वालों को?

सूने नभ में आग जलाकर

यह सुवर्ण-सा ह्रदय गला कर

जीवन-संध्या को नहलाकर

रिक्त जलधि भरने वालों को?

रजनी के लघु-लघु तम कन में

जगती की ऊष्मा के वन में

उस पर परते तुहिन सघन में

छिप, मुझसे डरने वालों को?

निष्ठुर खेलों पर जो अपने

रहा देखता सुख के सपने

आज लगा है क्यों वह कंपने

देख मौन मरने वाले को?

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