Hindi, asked by verdanish63, 4 months ago

लक्खा बुआ के जीवन संघर्ष पर विचार कीजिए।
पाठ - लक्खा बुआ
पुस्तक - नंगातलाई का गाँव

Answers

Answered by chamilmajumder
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Answer:

लक्खा बुआ लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा रचित स्मृति-आख्यान ‘नंगातलाई का गाँव में संकलित दस अध्यायों में से एक अध्याय है। लक्खा बुआ लेखक के गाँव बिस्कोहर की एक बेटी है जिसका सजीव चित्रण इस अध्याय में विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने किया है। स्मृति-आख्यान शैली में रचित इस कहानी में संस्मरण और आत्मकथा के तत्त्व भी सहज रूप से गुंथे हुए हैं। इसमें एक सामान्य कथा के माध्यम से लेखक ने असामान्य प्रभाव छोड़ने की कोशिश की है।स्मृति-आख्यान की यह विशेषता है कि इसका मुख्य नायक या मुख्य पात्र लेखक का आत्मीय होता है। यद्यपि लक्खा बुआ सीधे तौर पर लेखक की बुआ नहीं हैं, न ही वह लेखक की सजातीय हैं, तथापि लेखक ने उनका जिस रूप में चित्रण किया है वह ग्राम्य-जीवन के सहज आत्मीय संबंध को ही दर्शाता है।

Explanation:

गाँव में कोई भी पराया नहीं होता बल्कि सब अपना ही लगता है। यही भावबोध ‘लक्खा बुआ के सन्दर्भ में लेखक ने भी जागृत किया है। इसमें लेखक ने अपने गाँव बिस्कोहर की एक कहारिन स्त्री की संघर्ष गाथा का बखान किया है। लेखक ने लक्खा बुआ को जैसा पाया वैसा ही चित्रित किया है।यद्यपि कई जगह लक्खा बुआ का चरित्र चित्रण ‘बुआ शब्दावली से सुसंगत नहीं लगता पर लेखक ने इसमें कोई लाग-लपेट नहीं किया जैसे “लक्खा बुआ पच्छ्रे टोले की नगर-वधु थीं, ‘सच्ची बात यह है कि यहाँ पान खाने कोई नहीं आता।’

संवेदनशीलता स्मृति–आख्यान समेत किसी भी रचना का प्रमुख घटक माना जाता है। इसके अभाव में कोई भी लेखक अपनी रचना से न्याय नहीं कर सकता है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि एक संवेदनशील रचनाकार ही अपने पात्र के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर सकता है। आत्मानुभूति एवं भावों के तीव्र प्रवाह के कारण ही वह स्मृति के केंद्रीय विषय या पात्र से तादात्म्य स्थापित कर पाता है। यह संवेदनशीलता वहाँ और भी प्रगाढ़ हो जाती है जब पात्र अत्यंत असहाय और लाचार हो। जब इनसे रचनाकार का संबंध आत्मीय होता है तो संवेदना का गहन होना भी स्वाभाविक है। लेखक ने ‘लक्खा बुआ नामक प्रस्तुत पाठ में अपनी अतिशय संवेदनशीलता को दर्शाया है।

जब गौरीशंकर महराज ने मार खाने और समाज निंदा के उपरांत भी लक्खा को नहीं छोड़ने की बात कही तो बिसनाथ को गौरीशंकर महाराज बहुत अच्छे लगे थे। यह लक्खा के प्रति लेखक की संवेदनशीलता का ही प्रमाण है। इसके अलावे जब तेलिन को भरे पंचायत में कोड़े मारे जा रहे थे तो वहाँ लेखक ने उसकी तुलना अबोध बकरी से की है जिसे जबरन मार दिया जाता है। उदाहरण देखिये – “भिगोये हुए बनकस की मार खाती हुई चुपचाप तेलिन गर्दन रेती जाती हुई बकरी थी।प्रदर्शन किया है लेकिन यह तब एकांगी मालूम पड़ता है जब लेखक गौरीशंकर महराज की वास्तविक पत्नी को भूल जाते हैं। या फिर जब लक्खा के रूप-लावण्य का चित्रण ‘बुआ की तरह नहीं बल्कि एक धंधेवाली(वेश्या) स्त्री की भाँति करते हैं। यह कैसी संवेदनशीलता है जो एक ओर गौरीशंकर के बसे–बसाये घर के उजड़ जाने पर भी चुप है लेकिन पर-पुरुष या पर-स्त्री गमन पर आनंद अनुभव करता है। इसमें अनेक शादियाँ करके भी ससुराल न जाकर गाँव के ही एक विवाहित पुरुष के साथ बैठ जाने वाली लक्खा बुआ के प्रति सहानभूति है किन्तु गौरीशंकर की पत्नी के दुःख के प्रति कोई आँसू नहीं है। यहाँ लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी जी की संवेदनशीलता एकांगी और खोखली जान पड़ती है। हमें समझना होगा कि उन्मुक्त व्यभिचार और पातिव्रत्य के संस्कार में वही अंतर है जो शरीर और आत्मा में है। अतः कोई भी कथा जो पारिवारिक संस्कार की कीमत पर उन्मुक्त प्रेमाचार या व्यभिचार को बढ़ावा दे उसकी आलोचना भी आवश्यक है।

Answered by aroranishant799
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Answer:

लक्खा बुआ 'नंगतलाई' गाँव में संकलित दस अध्यायों में से एक है, जो लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा एक स्मृति-कथा है। लक्खा बुआ लेखक के ग्राम बिस्कोहर की पुत्री हैं, जिनके जीवन का चित्रण इस अध्याय में विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया है। स्मृति-कथा शैली में रचित इस कहानी में संस्मरण और आत्मकथा के तत्व भी सहजता से गुंथे हुए हैं।

Explanation:

इस आत्मकथा में लक्खा बुआ मुख्य पात्र हैं। इसमें लक्खा बुआ के जीवन संघर्ष को व्यक्त किया गया है। लक्खा चाची बिस्कोहर में रहती थीं। वह पान की दुकान भी चलाती थी। जब लेखक गौरीशंकर महाराज की वास्तविक पत्नी को भूल जाता है तो यह एकतरफा प्रतीत होता है। या जब लक्खा के रूप-लावण्य को 'चाची की तरह नहीं बल्कि एक व्यवसायी महिला (वेश्या)' के रूप में चित्रित किया जाता है। ये कैसी संवेदनशीलता है, जो एक तरफ गौरीशंकर के घर के उजाड़ने के बाद भी खामोश रहती है, लेकिन जब पर-पुरुष या पर-स्त्री चलती है तो आनंद की अनुभूति होती है। इसमें लक्खा की मौसी के प्रति सहानुभूति है, जो कई शादियां करने के बाद ससुराल नहीं जाती और गांव के एक विवाहित व्यक्ति के साथ बैठती है, लेकिन गौरीशंकर की पत्नी के दुख के लिए कोई आंसू नहीं है। यहाँ लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी की संवेदनशीलता एकतरफा और खोखली लगती है। हमें यह समझना होगा कि मुक्त व्यभिचार और पवित्रता के अनुष्ठानों में उतना ही अंतर है जितना शरीर और आत्मा के बीच है। इसलिए, पारिवारिक संस्कारों की कीमत पर मुक्त प्रेम या व्यभिचार को प्रोत्साहित करने वाली किसी भी कहानी की आलोचना करना आवश्यक है।

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