लक्ष्मण कभी परशुराम को शांत करते हैं तो दूसरे ही पल उकसा देते हैं क्यों? सपषट की जिए
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Explanation:
परशुराम-लक्ष्मण : संवाद’ मूल रूप से व्यंग्य का काव्य है। व्यंग्य के सूत्रधार हैं-वीर एवं वाक्पटु लक्ष्मण। उनके सामने ऐसा योद्धा है जिस पर धनुष-बाण नहीं चलाया जा सकता। परशुराम बूढे हैं, मुनि हैं, ब्राह्मण हैं; किंतु बहुत डिगियल और बड़बोले हैं। इस कारण लक्ष्मण भी उन पर बातों के तीर चलाते हैं। परशुराम जितनी पोल बनाते हैं, लक्ष्मण वह पोल खोल देते हैं। वे परशुराम की खोखली वीरता की धज्जियाँ उड़ा देते हैं। | परशुराम शिव-धनुष तोड़ने वाले का संहार करने की घोषणा करते हैं। लक्ष्मण कहते हैं-हमने तो बचपन में ऐसे कितने ही धनुष तोड़ रखे हैं। परशुराम कहते हैं-शिव-धनुष कोई ऐसा-वैसा धनुष नहीं था। लक्ष्मण कहते हैं-हमारी नजरों में सब धनुष एक-से होते हैं। परशुराम स्वयं को बाल-ब्रह्मचारी, क्षत्रिय-कुल द्रोही, सहस्रबाहु संहारक कहते हैं। लक्ष्मण व्यंग्य करते हैं-वाह! मुनि जी तो सचमुच महायोद्धा हैं। वे फैंक से ही पहाड़ उड़ा देना चाहते हैं। परंतु यहाँ भी कोई छुईमुई के फूल नहीं हैं। परशुराम विश्वामित्र को कहते हैं कि वे लक्ष्मण को उसकी महिमा का वर्णन करें, वरना यह मारा जाएगा। तब लक्ष्मण व्यंग्य करते हैं-मुनि जी! आपसे बढ़कर आपकी महिमा और कौन बता सकता है। अपने गुण बताते-बताते आपका पेट अभी न भरा हो तो और कह लो। फिर सच्चे वीर युद्ध क्षेत्र में वीरता दिखाते हैं, बातें नहीं बताते। परशुराम क्रोध में आकर विश्वामित्र को कहते हैं कि मैं अभी इसे मारकर गुरु-ऋण से उऋण होता हैं। इस पर लक्ष्मण चोट करते हुए कहते हैं-हाँ हाँ, माता-पिता का ऋण तो आप उतार चुके। अब गुरु-ऋण भारी पड़ रहा है। लंबे समय से न चुका पाने के कारण ब्याज भी बढ़ गया होगा। लाओ, कोई हिसाब-किताब करने वाला बुलाओ। मैं अभी अपनी थैली खोलकर ऋण चुकाता हूँ। इस प्रकार यह अंश व्यंग्य से भरपूर है। तुलसी ने सच ही कहा है
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।। परशुराम यदि आग हैं तो लक्ष्मण के वचन घी की तरह काम करते हैं।