lobh pap ko mul hai, lobh mitavt man
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इस वाक्य से कवि यह कहना चाहता है कि लोभ पाप का मूल है अर्थात लोभ ही पाप का मुख्य कारण है। इसी से व्यक्ति के मन में बुरे कार्य करने की चेष्टा उत्पन होती है और वह न करने योग्य कार्य भी करता है।
लोभ मिटावत मान अर्थात लोभ में आके मनुष्य बुरे कार्य में लिप्त हो करअपना मान तक भी खो देता है। इसलिये मनुष्य को अपने जीवन में कभी लोभ नहीं करना चाहिए।
लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहिं कीजिए, या मैं नरक निदान॥
भावार्थ — यह पंक्तियां ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ द्वारा रचित पुस्तक ‘अंधेर नगरी’ पुस्तक से ली गईं है। इन पंक्तियों के माध्यम से लेखक कहना चाहता है कि लोभ ही पाप की जड़ होता है। हमें लोभ कभी नहीं करना चाहिए। लोभ यानी लालच एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसके वश में होकर हम ऐसे कार्य भी करते हैं, जो हमें नहीं करना चाहिए।
हम पाप और पुण्य में भेद नहीं कर पाते। हम अच्छे और बुरे कार्य में भेद नहीं कर पाते। हम लोभ के वश में आकर बुरे कार्यों को भी करने लगते हैं। इस कारण समाज में हमारा मान सम्मान कम होता है और लोभ के कारण हम जो पाप करते हैं, उसके कारण अंत में हमें नर्क ही मिलता है।
यहां नर्क से लेखक का तात्पर्य है कि लोभ के कारण हमने जो बुरे कार्य किए हैं, अंत में उसका परिणाम हमें भुगतना ही पड़ता है।