Loktanter ka Ek dosh
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मित्रों,इन दिनों पूरी दुनिया में जनाक्रोश का तूफ़ान आया हुआ है.बारी-बारी से दुनिया के विभिन्न देशों में तानाशाही शासन का अंत हो रहा है.हर जगह जनता बेरोजगारी,महंगाई और सबसे बढ़कर आर्थिक गैरबराबरी से परेशान है.खैर तानाशाहों का अंत हमेशा से इसी तरह होता आया है.इतिहास बार-बार अपने को दोहराता रहता है परन्तु तानाशाह सबक नहीं लेते और फिर वही होता है जो इन परिस्थितियों में होना चाहिए.लेकिन इस बार जनाक्रोश के बबंडर की चपेट में सिर्फ तानाशाही शासन वाले देश ही नहीं हैं बल्कि वे देश भी इसकी जद में हैं जो दुनियाभर में मानवाधिकारों और लोकतंत्र के तथाकथित ठेकेदार बने फिरते हैं.दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार और दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका में भी इन दिनों बढ़ती बेरोजगारी,महंगाई और गैरबराबरी से क्षुब्ध जनता पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने की मुहिम चला रही है.जनता नाराज है कि अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के चलते वे गरीब होते जा रहे हैं और उनकी खून-पसीने की कमाई हड़प जानेवाले बैंक धनवान.दुनिया की मात्र ४% जनसंख्या की बदौलत दुनिया की २४% आय पर कब्ज़ा रखनेवाले अमेरिका की आतंरिक स्थिति भी पूंजीवाद की बिडंबनाओं के चलते कमोबेश ऐसी ही है.जहाँ वहां की करीब आधी राष्ट्रीय आय पर सबसे ऊपर के २०% लोगों का कब्ज़ा है वहीँ सबसे गरीब १५% जनसंख्या की राष्ट्रीय आय में सिर्फ ३.४% की हिस्सेदारी है.इतना ही नहीं सबसे ऊपर के १% लोगों का देश की आमदनी के १८% पर गरीबों के दिलों को खटकने वाला अधिकार है.परिणाम आम जनता मुफलिसी की जिंदगी जीने को बाध्य है वहीँ वहाँ के अमीर अपना पैसा कहाँ खर्च करें;की समस्या से जूझ रहे हैं.यूरोप में भी कमोबेश सारी सरकारें कॉरपोरेट जगत के ईशारों पर नृत्य करने में मग्न हैं.ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?1860 के दशक तक जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति थे;तो प्रजातंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन हुआ करता था.फिर यह विकृत्ति कैसे आ गयी कि कॉरपोरेट जगत परदे के पीछे से कथित लोकतान्त्रिक सरकारों का सूत्रधार बन बैठा.
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मित्रों,इन दिनों पूरी दुनिया में जनाक्रोश का तूफ़ान आया हुआ है.बारी-बारी से दुनिया के विभिन्न देशों में तानाशाही शासन का अंत हो रहा है.हर जगह जनता बेरोजगारी,महंगाई और सबसे बढ़कर आर्थिक गैरबराबरी से परेशान है.खैर तानाशाहों का अंत हमेशा से इसी तरह होता आया है.इतिहास बार-बार अपने को दोहराता रहता है परन्तु तानाशाह सबक नहीं लेते और फिर वही होता है जो इन परिस्थितियों में होना चाहिए.लेकिन इस बार जनाक्रोश के बबंडर की चपेट में सिर्फ तानाशाही शासन वाले देश ही नहीं हैं बल्कि वे देश भी इसकी जद में हैं जो दुनियाभर में मानवाधिकारों और लोकतंत्र के तथाकथित ठेकेदार बने फिरते हैं.दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार और दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका में भी इन दिनों बढ़ती बेरोजगारी,महंगाई और गैरबराबरी से क्षुब्ध जनता पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने की मुहिम चला रही है.जनता नाराज है कि अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के चलते वे गरीब होते जा रहे हैं और उनकी खून-पसीने की कमाई हड़प जानेवाले बैंक धनवान.दुनिया की मात्र ४% जनसंख्या की बदौलत दुनिया की २४% आय पर कब्ज़ा रखनेवाले अमेरिका की आतंरिक स्थिति भी पूंजीवाद की बिडंबनाओं के चलते कमोबेश ऐसी ही है.जहाँ वहां की करीब आधी राष्ट्रीय आय पर सबसे ऊपर के २०% लोगों का कब्ज़ा है वहीँ सबसे गरीब १५% जनसंख्या की राष्ट्रीय आय में सिर्फ ३.४% की हिस्सेदारी है.इतना ही नहीं सबसे ऊपर के १% लोगों का देश की आमदनी के १८% पर गरीबों के दिलों को खटकने वाला अधिकार है.परिणाम आम जनता मुफलिसी की जिंदगी जीने को बाध्य है वहीँ वहाँ के अमीर अपना पैसा कहाँ खर्च करें;की समस्या से जूझ रहे हैं.यूरोप में भी कमोबेश सारी सरकारें कॉरपोरेट जगत के ईशारों पर नृत्य करने में मग्न हैं.ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?1860 के दशक तक जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति थे;तो प्रजातंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन हुआ करता था.फिर यह विकृत्ति कैसे आ गयी कि कॉरपोरेट जगत परदे के पीछे से कथित लोकतान्त्रिक सरकारों का सूत्रधार बन बैठा.
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VickyskYy:
hlo
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लोकतंत्र के कई सारे दोष है।
इनमें से कुछ तो इस प्रकार के है -
1. नेताओं के बदलने के कारण इसमें राजनैतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है।
2. इसमें भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
3. लोकतंत्र में निर्णय/फैसला लेने में देरी होती है।
4. इसमें अशिक्षित जनता द्वारा गलत निर्णय लेने का दर बना रहता है।
इनमें से कुछ तो इस प्रकार के है -
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2. इसमें भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
3. लोकतंत्र में निर्णय/फैसला लेने में देरी होती है।
4. इसमें अशिक्षित जनता द्वारा गलत निर्णय लेने का दर बना रहता है।
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