लड़की को सुख का आभास तो था परंतु दुख बचाना नहीं आता था ऐसा क्यों
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जिस प्रकार मनुष्य शब्दों के भ्रम जाल में बँधा रहता है, ठीक उसी प्रकार स्त्री का जीवन कपड़े और गहनों के आधार पर संबंध में में बँधा रहता है।
माँ बेटी को सीख देती है कि लड़कियों जैसी दुर्बलता, कमजोरी और स्त्री के लिए निर्धारित परम्परागत आदर्शों को न अपनाए। उसे हमेशा सजग तथा सचेत रहकर जीवन में आने वाली हर स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। लड़की जैसे गुण, संस्कार तो हों लेकिन लड़की जैसी निरीहता कमजोरी नहीं अपनानी है। उसे हर स्थिति का साहस पूर्ण मुकाबला करना है।
सामाजिक व्यवस्था के तहत स्त्रियों के प्रति जो आचरण किया जा रहा है उसी के संबंध में माँ अपनी बेटी को समझा रही है। आग पर रोटियाँ सेंकी जाती है, उससे अपने शरीर को जलाया नहीं जाता है। मां बेटी को सचेत करते हुए कहती है कि अन्य बहुओं की तरह वह आग का शिकार न बन जाए, प्रत्येक अत्याचार के लिए सचेत रहे ।आजकल ससुराल में लड़कियाँ जला दी जाती हैं या जल जाती हैं, उसी ओर संकेत हैं।
कन्यादान कविता माँ अपनी बेटी के बारे बतातीं है कि उसे अभी सांसारिक व्यवहार का, जीवन के कठोर यथार्थ का ज्ञान नहीं था। बस उसे वैवाहिक सुखों के बारे में थोड़ा-सा ज्ञान था। जीवन के प्रति लड़की की समझ सीमित थी। अर्थात् वह विवाहोपरांत आने वाली कठिनाइयों से परिचित नहीं थी। साथ ही वह समाज के छल-कपट को समझ नहीं सकती ।
स्त्री के जीवन में वस्त्र और आभूषण भ्रमों की तरह हैं अर्थात् ये चीजें व्यक्ति को भरमाती हैं। ये स्त्री के जीवन के लिए बंधन का काम करते हैं। और जिस प्रकार चतुर व्यक्ति अपनी लच्छेदार भाषा और मोहक शब्दावली से ही भोले इंसान को अपना गुलाम बना लेता है वैसे ही पुरुष से प्राप्त वस्त्र और आभूषणों के लालच में अथवा उन्हें लेकर आसक्त होने से स्त्री भ्रमित हो जाती है और वह पुरुष की दासी बन जाती है। ससुराल में अच्छे वस्त्राभूषणों के मोह में स्त्री प्राय: दासतामय बन्धन में पड़ जाती है। इसलिए वस्त्राभूषणों को शाब्दिक भ्रम कहा गया है।
सामाजिक व्यवस्था के तहत स्त्रियों के प्रति जो आचरण किया जा रहा है | उसके चलते अन्याय न सहन करने के लिए सचेत किया गया है क्योंकि समाज में लड़कियों के साथ में इतना अन्याय होता है कि वह उनको चुपचाप चारदीवारी के अंदर ही सहकर घुट घुट कर अपना जीवन जीती हैं।