लड़का - लड़की एक समान niband
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Hindi Essay on “Ladka Ladki ek Saman”, “लड़का-लड़की एक समान”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations. Absolute-Study December 10, 2018 Hindi Essays No Comments
लड़का-लड़की एक समान
Ladka Ladki ek Saman
प्रकृति की रचना के सुंदर फल लड़का और लड़की दोनों ही मानव जाति की वृद्धि, उसके संरक्षण और पालन के मुख्य आधार हैं। सभी धर्मग्रंथों में सृष्टि के इन उत्तम उपहारों को समान दर्जा दिया गया है। लेकिन सामाजिक परिस्थितियों और आर्थिक कठिनाइयों के कारण समाज में इन दोनों के बीच एक गहरा भेद पैदा हो गया है। लड़कियों को लड़कों से निम्न स्तर का प्राणी माना जाता है। कुछ लोग तो उनके पालन-पोषण में भी भेद-भाव करते हैं। सब लोग यह जानते हैं कि लड़का-लड़की समाज के पूरक हैं, कोई भी किसी से किसी क्षेत्र में कम या अधिक नहीं है। समाज के ठेकेदारों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए पुरुष को शारीरिक रूप से बलवान कहा और आर्थिक रूप से सबल कहा, समाज पर उसका दबदबा बना रहे इसके लिए समाज को पुरुष प्रधान समाज की संज्ञा दी। इसी बलबते पर उसने स्त्री को अनेक मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया उसे नरक का द्वार कहा, साहित्यकारों ने उसे अबला और समाज ने उसे पुरुष के पैर की जूती कहकर अपमानित किया। लड़के को खानदान बढ़ाने वाला, कुल का नाम रोशन करने वाला तथा बुढ़ापे का सहारा कहकर हर प्रकार से आदर व सम्मान दिया गया, लड़की के लिए दहेज की समस्या से उलझना व समाज के दरिंदों का बुरी नजर से देखना माता-पिता के लिए शोचनीय हो गया, जिस कारण भ्रूण रूप में कन्या शिशु की हत्या का चलन शुरू हो गया, जो अभी तक आंशिक रूप में कहीं न कहीं देखने को मिलता रहता है। इन हरकतों से समाज में जो लड़की-लड़के की औसत जन्म दर में कमी आई उससे विचारकों की आँखें खुलीं।आज विश्व स्तर पर इसे रोकने के प्रयास जारी हैं। मध्यकाल में आर्य समाज, ब्रह्म समाज ने जो प्रयास किया था उससे नारी की स्थिति में सुधार आया। उसकी शिक्षा की व्यवस्था हुई, उसने रूढ़िवादिता से बाहर आ नए वातावरण में साँस ली। पढ़-लिख कर आज वह उद्योग, कृषि, कला, साहित्य, व्यापार, व्यवसाय आदि हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ चुकी है। एवरेस्ट से लेकर अंतरिक्ष तक, उद्योग से लेकर व्यापार तक, दफ़्तर से लेकर साहित्य सृजन तक, हर स्थान पर उसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसमें असीम शक्तियाँ हैं जिसे पुरुष की शक्ति के साथ मिलाकर मनचाहा लाभ प्राप्त किया जा सकता है और समाज की समृद्धि में योगदान से देश को मजबूत बनाया जा सकता है। आज समाज में 90% लोगों में यह परिवर्तन देखने को मिल रहा है कि वे लड़का हो या लड़की दोनों को समान समझते हैं। परिवार नियोजन के अधीन भगवान द्वारा मिली सौगात को प्रसन्नतापूर्वक अपनाते हैं और लड़का हो या लड़की उसका लालन-पालन भरसक प्रयत्न से कर पढ़ा-लिखा कर उसे योग्य बनाना अपना कर्तव्य समझते हैं।
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प्रस्तावना – स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। जीवन की गाड़ी सुचारु रूप से चलती रहे इसके लिए दोनों पहियों अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर का सहयोग और सामंजस्य ज़रूरी है। यदि इनमें एक भी छोटा या बड़ा हुआ तो गाड़ी सुचारु रूप से नहीं चल सकेगी। इसी तरह समाज और देश की उन्नति के लिए पुरुषों की नहीं नारियों के योगदान की भी उतनी आवश्यकता है। नारी अपना योगदान उचित रूप में दे सके इसके लिए उसे बराबरी का स्थान मिलना चाहिए तथा यह ज़रूरी है कि समाज लड़के
और लड़की में कोई भेद न करे।
नारी में अधिक मानवीय गुण – स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। यद्यपि दोनों की शारीरिक रचना में काफ़ी अंतर है फिर भी जहाँ तक मानवीय गुणों की जहाँ तक बात है। वहाँ नारी में ही अधिक मानवीय गुण मिलते हैं। पुरुष जो स्वभाव से पुरुष होता है, उसमें त्याग, दया, ममता सहनशीलता जैसे मानवीय गुण नारी की अपेक्षा बहुत की कम होते हैं। नर जहाँ क्रोध का अवतार माना जाता है वहीं नारी वात्सल्य और प्रेम की जीती-जागती मूर्ति होती है। इस संबंध में मैथिली शरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –
एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी।
प्राचीनकाल में नारी की स्थिति-प्राचीनकाल में नर और नारी को समान अधिकार प्राप्त थे। वैदिककाल में स्त्रियों द्वारा वेद मंत्रों, ऋचाओं, श्लोकों की रचना का उल्लेख मिलता है। भारती, विज्जा, अपाला, गार्गी ऐसी ही विदुषी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ कर उनके छक्के छुड़ाए थे। उस काल में नारी को सहधर्मिणी, गृहलक्ष्मी और अर्धांगिनी जैसे शब्दों से विभूषित किया जाता था। समाज में नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।
मध्यकाल में नारी की स्थिति – मध्यकाल तक आते-आते नारी की स्थिति में गिरावट आने लगी। मुसलमानों के आक्रमण के कारण नारी को चार दीवारी में कैद होना पड़ा। मुगलकाल में नारियों का सम्मान और भी छिन गया। वह पर्दे में रहने को विवश कर दी गई। इस काल में उसे पुरुषों की दासी बनने को विवश किया गया। उसकी शिक्षा-दीक्षा पर रोक लगाकर उसे चूल्हे-चौके तक सीमित कर दिया गया। पुरुषों की दासता और बच्चों का पालन-पोषण यही नारी के हिस्से में रह गया। नारी को अवगुणों का भंडार समझ लिया गया। तुलसी जैसे महाकवि ने भी न जाने क्या देखकर लिखा –
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी।
ये सब ताड़न के अधिकारी॥
आधुनिक काल में नारी की स्थिति- अंग्रेजों के शासन के समय तक नारी की स्थिति में सुधार की बात उठने लगे। सावित्री बाई फले जैसी महिलाएँ आगे आईं और नारी शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाया। इसी समय राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी आदि ने सती प्रथा बंद करवाने, संपत्ति में अधिकार दिलाने, सामाजिक सम्मान दिलाने, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि की दिशा में ठोस कदम उठाए, क्योंकि इन लोगों ने नारी की पीड़ा को समझा। जयशंकार प्रसाद ने नारियों की स्थिति देखकर लिखा –
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में॥
एक अन्य स्थान पर लिखा गया है –
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥
स्वतंत्रता के बाद नारी शिक्षा की दिशा में ठोस कदम उठाए गए। उनके अधिकारों के लिए कानून बनाए गए। शिक्षा के कारण पुरुषों के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया। इससे नारी की स्थिति दिनोंदिन सुधरती गई। वर्तमान में नारी की स्थिति पुरुषों के समान मज़बूत है। वह हर कदम पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। शिक्षा, चिकित्सा, उड्डयन, राजनीति जैसे क्षेत्र अब उसकी पहुँच में है।
नारी की स्थिति और पुरुष की सोच – समाज में जैसे-जैसे पुरुषों की सोच में बदलाव आया, नारी की स्थिति में बदलाव आता गया। कुछ समय पूर्व तक कन्याओं को माता-पिता और समाज बोझ समझता था। वह भ्रूण (कन्या) हत्या के द्वारा अजन्मी कन्याओं के बोझ से छुटकारा पा लेता था। यह स्थिति सामाजिक समानता और लिंगानुपात के लिए खतरनाक होती जा रही थी, पर सरकारी प्रयास और पुरुषों की सोच में बदलाव के कारण अब स्थिति बदल गई है। लोग अब लड़कियों को बोझ नहीं समझते हैं। पहले जहाँ लड़कों के जन्म पर खुशी मनाई जाती थी वहीं अब लड़की का जन्मदिन भी धूमधाम से मनाया जाने लगा है। हमारे संविधान में भी स्त्री-पुरुष को समानता का दर्जा दिया गया है, पर अभी भी समाज को अपनी सोच में उदारता लाने की ज़रूरत है।
उपसंहार – घर-परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति की कल्पना नारी के योगदान के बिना सोचना हवा-हवाई बातें रह जाएँगी। अब समाज को पुरुष प्रधान सोच में बदलाव लाते हुए महिलाओं को बराबरी का सम्मान देना चाहिए। इसके लिए ‘लड़का-लड़की एक समान’ की सोच पैदा कर व्यवहार में लाने की शुरुआत कर देना चाहिए।