लड़कियों की कम होती संख्या और भारतीय समाज - विषय पर समाचार पत्र में प्रकाशित करने के लिए एक प्रतिवेदन [रिपोट] लिखिए!
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aaj ka vichar hai ki yah sab kuch ho raha hai WO sahi nahi hai aaj bhi ladki pareshan hai chahe wo shadi ke baad ho ya use phle aaj bhi ladki darte hai bhar jane se kyoki hmare desh ka har byakti uske raksha ki nahi sochta hai hame unhe bhi apne sath hath badha kar chalna hoga unhe bhi apne tharhe samajna hoga tabhi ye desh taraki karega
भारत में कम होती लड़कियों की संख्या चिंता का विषय हो गई है
यह चिंता इस बात से केवल नहीं है कि लड़कियाँ कम हो रही हैं, बल्कि कुछ दिनों बाद ऐसी भी स्थिति बन जाएगी कि इससे अस्तित्व पर संकट आ जाएगा। तकनीकी विकास का लोगों ने दुरुपयोग करना भी खूब सीखा है।
इस संबंध में न केवल लड़कियों के जीने के अधिकार को सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है, बल्कि इसके साथ ही उनके सम्मानजनक जीवन की भी गारंटी देनी होगी। पिछले सौ सालों में स्त्री-पुरुष अनुपात देखे तो इसमें भारी गिरावट आई है। महिलाओं को शिशु, बच्ची, तरुण, युवा और वृद्धा हर दौर में यातना के दौर से गुजरना पड़ता है। उन्हें भ्रूण हत्या के साथ ही सांस्कृतिक रूप से बहिष्कार और मुखर अत्याचार का सामना करना पड़ रहा है।
यक्ष प्रश्न-
यहाँ एक बात यक्ष प्रश्न के रूप में भी है कि क्या लिंग दर में आने वाली कमी के पीछे तकनीकी विकास बड़ा कारण है? दरअसल इसके पीछे पुरुषों के हॉवी होने या पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुषवादी मानसिकता, अब पुरानी बात हो गई।
मौजूदा दौर में महिलाएँ खुद भी लड़कियों के बजाय लड़कों की कामना करती हैं। हाँ कुछ हद तक ये बातें सही हो सकती हैं, लेकिन मौजूदा दौर में 6 महीने की बच्ची से लेकर 60 साल तक की वृद्धा हमेशा खतरे में जीती है। मौजूदा दौर में दहेज उत्पीड़न, छेडखानी और बलात्कार के साथ ही रोजमर्रा की जिंदगी में औरतों को होने वाली दिक्कतों से पूरा समाज वाकिफ है, लिहाजा भागदौड़ की जिंदगी में दिक्कतों से छुटकारा पाने में वह इन समस्याओं से लड़ने से बेहतर छुटकारा पाना चाहता है।
भारत में कम होती लड़कियों की संख्या चिंता का विषय हो गई है। यह चिंता इस बात से केवल नहीं है कि लड़कियाँ कम हो रही हैं, बल्कि कुछ दिनों बाद ऐसी भी स्थिति बन जाएगी कि इससे अस्तित्व पर संकट आ जाएगा।
अगर उम्र के लिहाज से लिंगानुपात देखा जाए तो 0 से 4, 5 से 9 और 10 से 14 साल तक के बच्चों की असामयिक मौत हो जाती है। हालात ये हैं कि 0 से 6 साल के बच्चों का लिंगानुपात जो 1981 में 962 था, वह 2001 में 928 ही रह गया। 1991 में यह दर 945 थी। इस आयु वर्ग में लिंगानुपात में काफी असमानता बालिकाओं के गुम होने का प्रमाण है। वैसे भी इनमें लड़कियों की मृत्यु दर ज्यादा है।
हर पाँचवीं लड़की गुम-
वैसे हृदयविदारक बात यह है कि बच्चियों के जन्मते ही मरने की दर में भी कोई खास अंतर नहीं आया है। माना जाता है कि इसके पीछे जन्मपूर्व लिंग निर्धारण और वंश के लिए पुत्र की कामना, लड़कियों के प्रति अपराध के कारण हैं। जन्म के समय लिंगानुपात के आँकड़ों (1961-91) पर गौर करें तो 1961 में लिंगानुपात 994 था, जो 1991 में 939 हो गया था। और इसके बाद इसमें और गिरावट आई। तभी तो आज पंजाब और हरियाणा के लड़कों को ब्याह के लिए केरल और बांग्लादेश में लड़कियों की तलाश करनी पड़ रही है।
1991 से 2001 में जन्म के समय ही होने वाली लड़कियों की मौत के 12.6 फीसदी मामले भारत में होते हैं। स्त्री-पुरुष अनुपात में पंजाब और हरियाणा के हालात बहुत बदतर हैं। 2001 की जनसंख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि पंजाब की हर पाँचवीं लड़की गुम है।
पहले नहीं थे बुरे हालात-
करीब सौ साल पहले 1901 में पूर्वोत्तर राज्यों मिजोरम, मणिपुर, मेघालय में स्त्रियाँ, पुरुषों के मुकाबले अधिक थीं। वहीं उड़ीसा और बिहार में भी हालात स्त्रियों के पक्ष में थे। वैसे राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में तब भी आज के ही हालात थे, लेकिन कमतर। आज पूरे देश में केवल केरल में ही लड़कियाँ, लड़कों के मुकाबले अधिक हैं, लेकिन यहाँ भी महिलाओं के प्रति अपराध सिर चढ़कर बोल रहा है।