मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी। नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं। कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा। मुँह पर थी आहलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा यह क्या लाई? बोल उठी वह 'माँ, काओ'। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा- 'तुम्हीं खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया। उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ। मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया। भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
-सुभद्रा कुमारी चौहान
मिट्टी खिलाने आई बेटी की छवि कैसी थी ?
(क) उसका शरीर धूल धूसरित था और आँखों में डर था ।
(ख) उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था और उसकी भोली आँखों से उत्सुकता छलक रही थी।
(ग) उसकी आँखों में शरारत नज़र आ रही थी ।
(घ) उसकी छवि मनमोहक और आकर्षक थी ।
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मिट्टी खिलाने आई बेटी की छवि कैसी थी ?
(क) उसका शरीर धूल धूसरित था और आँखों में डर था ।
(ख) उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था और उसकी भोली आँखों से उत्सुकता छलक रही थी।
(ग) उसकी आँखों में शरारत नज़र आ रही थी ।
(घ) उसकी छवि मनमोहक और आकर्षक थी ।
इसका सही जवाब है :
(ख) उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था और उसकी भोली आँखों से उत्सुकता छलक रही थी।
व्याख्या :
मिट्टी खिलाने आई बेटी की छवि में उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था और उसकी भोली आँखों से उत्सुकता छलक रही थी। कवियत्री अपने बेटी के बचपन को देखकर , अपने बचपन को याद कर रही थी | वह बहुत खुश और गर्व महसूस कर रही थी |
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