मीडिया की भाषा कैसी होनी चाहिए स्पष्ट कीजिए
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पत्रकारिता ने हिंदी भाषा को नया जीवंत रूप और संस्कार देने का काम किया है। माना जाता है कि भाषा का ज्ञान पत्रकार का सबसे बड़ा गुण है। साफ है, जिस पत्रकार की भाषा जितनी पैनी होगी, वह उतना ही सफल और सक्षम होगा। किसी भी भाषा की रचना सामान्य परिस्थितियों में नहीं होती। भाषा परिवर्तनों में जन्म लेती है और परिवर्तनों के साथ ही विकसित होती है। नए समाज में विकास की नई परिस्थितियां पैदा होती हैं, नई घटनाएं जन्म लेती हैं। युद्ध, क्रांति या आंदोलन के नए रूप खड़े होते हैं, तब उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए नई भाषा, शैली और शब्दावली की जरूरत महसूस होती है। पत्र-पत्रिकाओं का सीधा रिश्ता सामान्य जनता से होता है, इसलिए भाषा में बदलाव की यह जरूरत सबसे पहले समाचार पत्रों को ही महसूस होती है। ऐसे संक्रमण काल में पत्रों के सामने दो नए काम आ खड़े होते हैं- नई शब्दावली की रचना और उसका चलन।
भाषा की रचना में अक्सर ऐसे मोड़ आते हैं कि कुछ नए शब्द किसी खास घटनाक्रम के संदर्भ में अस्तित्व में तो आते ही हैं, किंतु जैसे ही उस घटनाक्रम की चर्चा थमती है, वे शब्द भी धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं। ऐसे कई शब्द अल्पजीवी होते हैं और कई दीर्घजीवी। कभी-कभी तो लुप्तप्राय शब्द भी अचानक अस्तित्व में आ जाते हैं। जैसे ‘महाभारत’ टेलीविजन सीरियल में ‘भ्राताश्री’, ‘माताश्री’ वगैरह।
हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार, विकास और परिमार्जन में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। न केवल साहित्यिक दृष्टि से पत्र-पत्रिकाओं का योगदान हिंदी की समृद्धि में उल्लेखनीय है, बल्कि भाषा की दृष्टि से भी वे महत्वपूर्ण हैं। भाषाशास्त्रियों की धारणा है कि प्रयोग के क्षेत्रों के अनुसार भाषा का एक विशिष्ट स्वरूप निर्धारित होता है। भाषा अपनी शब्दावली का विकास स्वयं करती है या प्रचलित शब्दावली में से ही शब्दों का चयन कर लेती है। यही कारण है कि मीडिया और समाचार पत्रों में प्रचलित भाषा साहित्यिक भाषा से कुछ अलग-सी दिखाई देती है। आधुनिक युग में पत्रकारिता पर व्यापक अनुसंधान हुए हैं, किंतु पत्रों की भाषा पर अलग से कोई ठोस काम नहीं किया जा सका है। समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं होती, किंतु वह एकदम आमफहम भी नहीं होती। इन दोनों भाषाओं के बीच में ही कहीं पत्रों की भाषा की स्थिति होती है।
लेकिन आजकल भाषा के स्वरूप में विकृति आती जा रही है और व्याकरण के नियमों की घोर उपेक्षा हो रही है। नई परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए मीडिया और समाचार पत्र भाषा के जिस स्वरूप को अपना रहे हैं, वह साहित्य में उससे भिन्न है। मीडिया और समाचार पत्रों की भाषा के लिए शुद्धतावादी दृष्टिकोण अपनाना बुरा नहीं है, किंतु भाषा जनसाधारण के लिए सुबोध होनी चाहिए। डेनियल डेफो का कहना था, ‘यदि कोई मुझसे पूछे कि भाषा का सर्वोत्तम रूप क्या हो, तो मैं कहूंगा कि वह भाषा, जिसे सामान्य वर्ग के भिन्न-भिन्न क्षमता वाले पांच सौ व्यक्ति (मूर्खो और पागलों को छोड़कर) अच्छी तरह से समझ सकें।’ आजकल बोलचाल के ठेठ शब्दों के साथ ही पुनरावृत्तिमूलक शब्दों का प्रयोग भी हिंदी समाचार पत्रों में होने लगा है।
हिंदी अखबारों में अनुवाद की जो भाषा घुस रही है, वह चिंता की बात है। यदि बंगाल में कोई घटना घटती है और उसका समाचार बांग्ला में छपता है, तो अंग्रेजी की समाचार एजेंसियां उसे अंग्रेजी में अनूदित कर हिंदी पत्रों को भेजती हैं। हिंदी समाचार पत्र उसका हिंदी में अनुवाद कर छापते हैं, जिससे अक्सर घटना की प्रस्तुति की मूल भावना ही समाप्त हो जाती है। एक तो हिंदी समाचार पत्रों में प्रयुक्त होने वाली हिंदी अंग्रेजी की अनुचर बनकर कांतिहीन और अवरुद्ध गति वाली हो गई है। दूसरे अनुवाद की जूठन और अंग्रेजी की प्रवृत्ति से तैयार किए गए समाचारों से पत्रकारिता का प्रभाव जनमानस पर सीमित हो रहा है। साथ ही भाषा की दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता अपने मौलिक स्वरूप की स्थापना नहीं कर पा रही है।
Explanation:
midiya ki bhasha suespast evm svyvsthit honi chahiye midiya ki bhasa saral honi chahiye.