Hindi, asked by shashidiwakar343, 5 months ago

मीडिया का वर्चस्व anuched​

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Answered by vais610558
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Answer:

यह मीडिया वर्चस्व का युग है। सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व का यह मूलाधार है। मीडिया हमारे जीवन की धड़कन है। मीडिया के बिना कोई भी विमर्श, अनुष्ठान, कार्यक्रम, संदेश, सृजन, संघर्ष, अन्तर्विरोध फीका लगता है। हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया इस समाज की नाभि है। जहां अमृत छिपा है।

आज आपको किसी विचार,व्यक्ति, राजनीति, संस्कृति, मूल्य,संस्कार आदि को परास्त करना है या बदलना है तो मीडिया के बिना यह कार्य संभव नहीं है। मीडिया सिर्फ संचार नहीं है। वह सर्जक भी है। वह सिर्फ उपकरण या माध्यम नहीं है। बल्कि परिवर्तन का अस्त्र भी है।

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Answered by singh2004sneha
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यह मीडिया वर्चस्व का युग है। सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व का यह मूलाधार है। मीडिया हमारे जीवन की धड़कन है। मीडिया के बिना कोई भी विमर्श, अनुष्ठान, कार्यक्रम, संदेश, सृजन, संघर्ष, अन्तर्विरोध फीका लगता है। हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया इस समाज की नाभि है। जहां अमृत छिपा है।

आज आपको किसी विचार,व्यक्ति, राजनीति, संस्कृति, मूल्य,संस्कार आदि को परास्त करना है या बदलना है तो मीडिया के बिना यह कार्य संभव नहीं है। मीडिया सिर्फ संचार नहीं है। वह सर्जक भी है। वह सिर्फ उपकरण या माध्यम नहीं है। बल्कि परिवर्तन का अस्त्र भी है।

मीडिया के प्रति पूजाभाव,अनुकरणभाव,अनालोचनात्मक भाव अथवा इसके ऊपर नियंत्रण और अधिकारभाव इसकी भूमिका को संकुचित कर देता है। मीडिया को हमें मीडिया के रूप में देखना होगा। पेशेवर नियमों और पेशेवराना रवैयये के साथ रिश्ता बनाना होगा।मीडिया को नियंत्रण, गुलामी, अनुकरण पसंद नहीं है। मीडिया नियमों से बंधा नहीं है।

जो लोग इसे नियमों में बांधना चाहते हैं, राज्य और निजी स्वामित्व के हितों के तहत बंदी बनाकर रखना चाहते हैं। उन्हें अंतत: निराशा ही हाथ लगेगी।मजेदार बात यह है कि प्रत्येक जनमाध्यम की अपनी निजी विशेषताएं होती हैं।किंतु कुछ कॉमन तत्व भी हैं।

मीडिया को आजादी, पेशेवर रवैयया,जनतंत्र,अभिव्यक्ति की आजादी, सृजन की आजादी पसंद है। मीडिया स्वभावत: साधारणजन या दरिद्र नारायण की सेवा में मजा लेता है। वही इसका लक्ष्य है। लेकिन मुश्किल यह है कि मीडिया के पास राज्य से लेकर बहुराष्ट्रीय निगमों तक जो भी जाता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जाता है। हमारी मुश्किल यहीं से शुरू होती है और हम मीडिया को गरियाने लगते हैं। उसके प्रति, उसकी सामाजिक भूमिका के प्रति निहित स्वार्थी दृष्टिकोण से रचे जा रहे उसके स्वरूप को ही असली स्वरूप मान लेते हैं।

मीडिया किसी का सगा नहीं है। वह अपना विलोम स्वयं बनाता है। वह जो चाहता है वह कर नहीं पाता। जो नहीं चाहता वह हो जाता है। मीडिया क्या कर सकता है? यह कोई व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह, राजनीतिक दल, राज्य अथवा कारपोरेट हाउस तय नहीं कर सकता। कुछ क्षण, दिन, महीना या साल तक यह भ्रम हो सकता है कि मीडिया वही कर रहा है जो मालिक करा रहे हैं। सच्चाई किंतु इसके एकदम विपरीत होती है।मीडिया जो दिखाता है वह सच है और सच नहीं भी है।जो नहीं दिखाता वह उससे भी बड़ा सच होता है। इसे हम अदृश्य सत्य कह सकते हैं।मीडिया में दृश्य सत्य से बड़ा अदृश्य सत्य होता है। यही वह बिन्दु हैं जहां मीडिया अनजाने अपना विलोम रच रहा है। मीडिया का विलोम मीडिया में कभी नहीं आता। इसीलिए हमें मीडिया के बारे में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नजरिए से सोचना होगा। हमने समाज, साहित्य, संस्कृति, राजनीति, दर्शन, अर्थनीति आदि सभी क्षेत्रों में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नजरिए से विचार किया है। किंतु मीडिया के क्षेत्र में इस नजरिए की कभी जरूरत ही महसूस नहीं की। मीडिया की सृष्टि अस्थायी होती है।उसका सृजन चंचल होता है। प्रत्येक मीडिया का अपना स्वतंत्र चरित्र है।उसकी निजी माध्यमगत विशेषताएं हैं। मीडिया के मूल्यांकन के समय,उसकी अंतर्वस्तु के मूल्यांकन के समय माध्यमगत विशेषताओं और विधागत विशेषताओं को प्राथमिक तौर पर सामने रखना चाहिए।

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