मीडिया शासन का कौन-सा स्तंभ है ?
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राजनीति शास्त्र में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। लेकिन यह आंशिक रूप से ही सही है। पूर्ण रूपेण नहीं। लोकतंत्र में जनता की आवाज़, सरकार और अन्य सरकारी एककों के कार्य व्यापार की प्रतिध्वनियाँ जरूर मीडिया के माध्यम से व्यापक रूप से प्रचारित और प्रसारित होता है। लेकिन आज मीडिया का चाल-चरित्र और स्वरूप में व्यापक बदलाव आ चुका है। मीडिया आज प्रबल आर्थिक प्रतिस्पर्धा के मध्य मिशन की जगह दुकान बन गया है। उसका मुख्य लक्ष्य मीडिया-मालिकों के लिए मुनाफा कमाने का रह गया है। पूँजीवादी व्यवस्था में बाजार का चाल और चरित्र गलाकाट प्रतिस्पर्धा का होता है, और यही चाल और चरित्र मीडिया में प्रवेश कर चुका है। प्रिंट, मीडिया, इलेक्ट्रोनिक मीडिया की स्थापना, संचालन और लगातार आय उपार्जन के लिए भारी पूँजी निवेश की जरूरत होती है, और यह काम बाजार में पूँजी के बल कर व्यापार कर रहे पूँजीपतियों के लिए ही सीमित प्रवेश की गुँजाईश छोड़ता है। विज्ञापन प्राप्त करना या विज्ञापन प्राप्त करने की स्वाभाविक पात्रता भी विशाल और मशहूर हो चुके संस्थाओं को ही हासिल हो पाता है। कम पूँजी के साथ मीडिया बाजार में प्रवेश करना और सतत बने रहना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। कभी लघु समाचारों का युग हुआ करता था, अब वह इतिहास का हिस्सा बन गया है। देश के किसी भी हिस्से में कोई लघु समाचार पत्र या इलेक्ट्रोनिक मीडिया मौजूद है ऐसा देखने को नहीं मिलता है। मीडिया जगत में कम हैसियत रखने वाले को विज्ञापन भी कम हैसियत के ही मिलते हैं। गलाकाट प्रतियोगिता में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बने रहने की भावना टिक नहीं पाता है। मालिक को अपनी पूँजी पर अथाह रिटर्न चाहिए होता है और वे उन्हीं लोगों को नौकरी में बनाए रखने के लिए मजबूर होते हैं जो उन्हें भारी रिटर्न दिलाता रहे। भारतीय मीडिया का चरित्र और स्वरूप सामाजिक रूप से सवर्ण मीडिया का है और इसमें अवर्ण समाज के सदस्यों का प्रवेश सहज नहीं है। इस तरह भारतीय मीडिया का वर्ग चरित्र भी जातिवादी और वर्णवादी चरित्र है। इस वर्णवादी वर्ग का आर्थिक पक्ष भी है जो सर्वजनवाद या समाजवाद का सहज विरोधी है।
बाजार में पूँजीपतियों की मानसिकता आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं को अपनी मुट्ठी में बनाए रखने की होती है। वे लोकसभा और राज्यसभा तथा विधान सभाओं के चुनाव के लिए भारी ब्लैक चंदे उघाते हैं और उस चंदे को लॉबिइस्ट कंपनी या एजेंटों के द्वारा उन उम्मीदवारों पर खर्च करने हैं, जिनके जीतने की प्रबल गुंजाईश होती है और जो भारी चंदे के बदले कोरे कागजों पर दस्तखत करने के लिए तैयार होते हैं। बाजार के खिलाड़ियों का यह खेल किसी क्लब में खेले जाने वाले ब्रिज के खेल की तरह है। बाजार के खिलाड़ियों की जानकारी में यह एक खूला खेल है, बस आम जनता इस खेल से वाकिफ नहीं रहता है। आज भारत में पूँजीपतियों के द्वारा जीताए लोग ही शासन प्रशासन में होते हैं और वे ठीक वही काम करते हैं जो पूँजीपतियों के लाभ को बढ़ाए या उनके लाभ के रास्ते में कांटा न बने। पूँजीपति शासक चुनने के साथ-साथ ऐसे बुद्धिजीवियों की सेना पर व्यय करना पसंद करते हैं, जो उनके लिए अनुकूल नीतियों के निर्माण में जनमत बनाएँ और जनता की रूचियों और सोच की धारा को बदलें। जाहिर है कि वे ऐसे ही मीडिया को विज्ञापन देना पसंद करते हैं जो उनके पूँजीयों के लिए नीतियों के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाते हैं और उनके प्रतिकूल समाचारों को ब्लैक आउट करते हैं। इस तरह भारत में आज मुख्य धारा की मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न रह गया है और वह लोकतंत्र में छेदन करने के कार्य में अपनी ऊर्जी को खपा रहा है।
यदि देश में सोशल मीडिया न होता तो मीडिया बिकाऊ होने के साथ साथ ठोकाऊ भी बन जाता। वह लोगों के अधिकारों को ठोकता और रौंदता। लेकिन सोशल मीडिया ने देश की जनता को एक वैकल्पिक मीडिया उपलब्ध कराया है, जो मीडिया के महादुर्गणों और छेदन क्रिया से देश को बचा रखा है। यदि सोशल मीडिया भी भारतीय पूँजीपतियों के हाथों में होता और उसका स्वरूप वैश्विक न रहता तो देश में मीडिया का स्वरूप तिहाड़ जेल में बंद किसी कैदी का सा होता। कुछ-कुछ चीन और उत्तर कोरिया की तरह।
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Media shashan ka fourth स्तंभ है
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