मुगलों के समय फारसी और हिन्दी साहित्य में क्या विकास हुआ?
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फारसी भाषा का संबंध भाषाओं के आर्य परिवार से है, जिससे संस्कृत, यूनानी, लैटिन, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि भी संबद्ध हैं। 'ईरान' शब्द का वास्तविक रूप "आर्याना" था, जैसा यवन लेखक लिखते हैं। आर्याना से धीरे-धीरे ईरान शब्द बन गया। यवन लेखकों ने आर्याना शब्द का आधुनिक ईरान तथा अफगानिस्तान दोनों के लिए प्रयोग किया है। फारसी, आर्य भाषाओं की पूर्वी शाखाओं से संबंध रखती है। इसके प्राचीनतम नमूने पारसियों की धार्मिक पुस्तक अवेस्ता की गाथाओं (मंत्रों) में मिलते हैं। उससे कुछ कम प्राचीन भाषा वह है जो ईरान के सम्राटों द्वारा पहाड़ों, चट्टानों पर खुदाए हुए लेखों में मिलती है। परंतु इन दोनों की भाषाओं में विशेष अंतर नहीं हैं। अफ़ग़ानिस्तान की आधुनिक भाषा अर्थात् पश्तो भी उसी समय की एक ईरानी भाषा से निकली है। यह वह समय था जब ईरान और भारत को अलग हुए अधिक समय नहीं हुआ था। प्राचीन ईरानी भाषा, जिसे यूरोपीय लेखक ज़ेंद कहते हैं और संस्कृत एक-दूसरे से इतनी मिलती-जुलती तथा समीप हैं कि अवेस्ता की गाथाओं का अनुवाद वैदिक संस्कृत में शब्द-प्रति-शब्द तथा छंद हो सकता है। पढ़ने में यह भाषा पूर्णरूपेण संस्कृत के समान ज्ञात होती है। उदाहरणार्थ ईरान के सम्राट् दारा प्रथम के एक शिलालेख के एक वाक्य में कहा गया है "उता नाहम् उता गौरा फ्रजानम्" अर्थात् मैंने शत्रु की नाक व कान दोनों कटवा दिए। इसी प्रकार एक वाक्य में कहता है कि "अदम् कारम् पार्सम् उता मादम् फ़ाइरायम् हय उप माम् आह" अर्थात् मैंने पारसी तथा मीडी सेनाएँ, जो मेरे पास थीं, दोनों भेजीं। 'अदम्' वही शब्द है जो संस्कृत में 'अहं' है तथा जिसका अर्थ 'मैं' है।
यह परिवार, जिसमें दारा प्रथम आदि थे, 'हखामनिशी' कहलाता है और इसका राज्य सन् 559 ईसा पूर्व के पहले स्थापित हुआ और सन् 326 ईसा पूर्व सिकंदर द्वारा नष्ट हुआ। यवनों का राज्य भी अधिक समय तक ईरान में स्थिर नहीं रह सका और शीघ्र ही एक जाति ने, जिसे 'पार्थियन' कहते हैं, अपना अधिकार ईरान पर जमा लिया। इनको ईरानी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि में कोई अभिरुचि नहीं थी प्रत्युत वे यूनानी भाषा तथा संस्कृति के प्रेमी थे। इनके समय में ईरानी धार्मिक पुस्तकें आदि बहुत सी नष्ट हो गईं। इनके राज्य के अंतिम काल में ईरानी राष्ट्र-धर्म में इनकी कुछ रुचि दिखलाई दी और धार्मिक ग्रंथों को एकत्रित करने का कुछ प्रयास हुआ पर इसी समय देश में एक दूसरी क्रांति उत्पन्न हो गई। एक दूसरे वंश का, जिसे 'सासानी' कहते हैं, सन् 226-28 ई. में देश पर अधिकार तथा राज्य हो गया। इस वंश का राज्य सन् 642 ई. तक रहा और मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया। इस युग की फारसी भाषा 'पहलवी' कहलाती है, जो आजकल के फारसी के बहुत समीप है पर पूर्णत: एक सी नहीं है। इस युग में पारसियों की धार्मिक पुस्तकें पुन: एकत्रित की गईं तथा फारसी धर्म फिर जीवित हो उठा। उस युग की फारसी पहलवी नाम से विख्यात थी पर साथ ही साथ पहलवी एक प्रकार की लिपि का भी नाम है। इस लिपि पर सुरयानी अर्थात् प्राचीन सीरिया की भाषा का बड़ा प्रभाव था। बहुत से शब्द सुरयानी अक्षरों में लिखे जाते और फारसी में पढ़े जाते थे। उदाहरण के लिए सुरयानी अक्षरों में "लखमा" लिखते थे और उसे फारसी 'नान' अर्थात् रोटी पढ़ते थे। जैसे अंग्रेजी में एल. एस. डी. (L. S. D.) लिखते हैं और पाउंड, शिलिंग, पेंस पढ़ते हैं, क्योंकि वे क्रमशः लैटिन भाषा के शब्द लिब्राई, सालिदी तथा देनारिई हैं। इस भाषा में जो साहित्यिक कार्य हुआ है उसका पर्याप्त भाग अभी तक प्राप्त है।
धार्मिक क्षेत्र में अवेस्ता की टीका 'ज़ेंद' के नाम से लिखी गई है और फिर उसकी टीका की गई, जिसका नाम 'पज़ेद' है। अवेस्ता के और भी अनुवाद पहलवी में हुए। इनके अतिरिक्त धार्मिक विषय पर "दीनकर्त" नामक पुस्तक रची गई, जिसमें पारसियों की प्रथाओं, इतिहास, आदि पर बहुत कुछ लिखा हुआ है। "बुंदहिश्न" भी धार्मिक पुस्तक है जो 12वीं शती ईसवी में लिखी गई और जिसका अधिकांश काफी पुराना है। "दातिस्ताने दीनिक" अथवा धार्मिक उपदेश तीसरा ग्रंथ है, जिसके संबंध में वेस्ट नामक विद्वान् कहता है कि इसका अनुवाद बहुत कठिन है। "शिं्कद गूमानिक वीजार" नवीं शताब्दी ईसवी के अंत में लिखी गई। इसमें ईसाई, यहूदी, मुसलमान, धर्मों ने जो आपत्तियाँ पारसी धर्म पर की हैं उनका उत्तर है। "मैनोए खिरद" में पारसी धर्म के बारे में 62 प्रश्नों के उत्तर हैं। "अर्दविराफ" नामक एक बड़ी आकर्षक पुसतक है, जिसमें ग्रंथकर्ता के बैज़ंठ, नरक आदि में सैर करने का वर्णन है, जैसा मुसलमानों में पैंगबर साब के आकाश पर स्वर्ग नरक का भ्रमण करने का विश्वास है। इटालियन में दांते नामक कवि की इनफरनो तथा परडाइजो रचनाएँ हैं, जिनमें कवि वर्णन करता है कि किस प्रकार उसने आकाश पर जाकर स्वर्ग तथा नरक की सैर की है। "मातिगाने गुजस्तक अबालिश" को फ्रांसीसी विद्वान् ने परकज़ेंद, उसके पारसियों द्वारा किए गए फारसी अनुवाद तथा फ्रेंच अनुवाद के साथ सन् 1883 ई. में छापा है।
ये सब तो धार्मिक पुस्तकें थीं। सांसारिक विषयों पर लिखी प्रसिद्ध पुस्तकों में "जामास्पनामक" का नाम लिया जा सकता है। इसमें प्राचीन ईरान के बादशाहों की कथाएँ आदि हैं। "अंदरज़े खुसरवे कवातान" में उन आदेशों की चर्चा है, जो ईरान के प्रसिद्ध सम्राट् नौशेरवाँ ने मरते समय दिए थे। "खुदाई नामक" अर्थात् बादशाहों की किताब मुसलमानों के समय तक थी। इसका अनुवाद अरबी में भी हुआ है। "यात्कारे ज़रीरान" को "शाहनामए गस्ताश्प" भी कहते हैं। "कारनामके अरतख्शत्रे पापकान" में सासानी वंश के संस्थापक अर्दशिर की कथाएँ हैं। खुसरवे कवातान और उसके गुलाम की कहानी पर भी एक पुस्तक है। यहाँ तक पहलवी साहित्य की विशिष्ट पुस्तकों का उल्लेख हुआ। इनके अतिरिक्त कुछ और छोटी छोटी रचनाएँ हैं जिनका विवरण नहीं दिया जा रहा है।
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沒關係
Méiguānxì
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