मैं किसकी औरत हूँ
मैं किसकी औरत हूँ
कौन है मेरा परमेश्वर
किसके पाँव दबाती हूँ
किसका दिया खाती हूँ
किसकी मार सहती हूँ...
ऐसे ही थे सवाल उसके
बैठी थी जो मेरे सामनेवाली सीट पर रेलगाड़ी में
मेरे साथ सफ़र करती
उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर साल
आँखें धंस गई थीं उसकी
मांस शरीर से झूल रहा था
चेहरे पर थे
दुख
थीं उनके फटकारों की खाइयाँ
के पठार
सोचकर बहुत मैंने कहा उससे
'मैं किसी की औरत नहीं हूँ
मैं अपनी औरत हूँ
अपना खाती हूँ
जब जी चाहता है तब खाती हूँ
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं'
उसकी आँखों में भर आई एक असहज खामोशी
आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन!
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बहुत -ही बढिया
Explanation:
it's really amazing lines and the true lines
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