Hindi, asked by siddheswariawasthi, 6 months ago

मेले के वर्णन पर निबंध निबंध​

Answers

Answered by anamikakr2007
1

Explanation:

हमारे शहर में प्रतिवर्ष 26 जनवरी के अवसर पर मेले का आयोजन किया जाता है । मेला गाँधी मैदान में लगता है जिसे देखने शहर के नागरिकों के अलावा निकटवर्ती गाँवों और कस्बों के लोग बड़ी संख्या में आते हैं ।

मैं भी अपने माता-पिता के साथ संध्या चार बजे मेला देखने गया । वहाँ खचाखच भीड़ थी । मुख्य मार्गों पर तो तिल रखने की जगह भी नहीं थी । लोग धक्का-मुक्की करते आपस में टकराते चल रहे थे । हम लोगों ने भी भीड़ का अनुसरण किया । भीतर तरह-तरह की दुकानें थीं । मिठाई, चाट, छोले, भेलपुरी तथा खाने-पीने की तरह-तरह की दुकानों में भी अच्छी-खासी भीड़ थी । तरह-तरह के आकर्षक खिलौने बेचने वाले भी कम नहीं थे । गुब्बारे वाला बड़े-बड़े रंग-बिरंगे गुब्बारे फुलाकर बच्चों को आकर्षित कर रहा था । कुछ दुकानदार घर-गृहस्थी का सामान बेच रहे थे । मुरली वाला, सीटीवाला, आईसक्रीम वाला और चने वाला अपने – अपने ढंग से ग्राहकों को लुभा रहा था ।

हम मेले का दृश्य देखते आगे बड़े जा रहे थे । देखा तो कई प्रकार के झूले हमारा इंतजार कर रहे थे । पिताजी ने मुझे झूले की टिकटें लेने के लिए पैसे दिए । कुछ ही मिनटों में हम आसमान से बातें करने लगे । डर भी लग रहा था और मजा भी आ रहा था । ऊपर से नीचे आते समय शरीर भारहीन-सा लग रहा था । पंद्रह चक्करों के बाद झूले की गति थमी, हम बारी-बारी से उतर गए ।दाएँ मुड़े तो जादू का खेल दिखाया जा रहा था । बाहर जादूगर के कर्मचारी शेर, बिल्ली, जोकर आदि का मुखड़ा पहने ग्राहकों को लुभा रहे थे । टिकट लेने के लिए लाइन लगी थी । हम भी लाइन में खड़े हो गए । टिकट दिखाकर भीतर प्रवेश किया । बड़ा ही अद्‌भुत जादू का खेल था । जादूगर ने अपने थैले में कबूतर भरा और भीतर से खरगोश निकाला । उसके कई खेल तो मुझे हाथ की सफाई लगे । कई खेलों में मैंने उसकी चालाकी पकड़ ली । पर एक-दो करतब सचमुच जादुई लगे । जादूगर ने दर्शकों की वाहवाही और तालियाँ बटोरीं ।

अब पेटपूजा की बारी थी । मेले में कुछ चटपटा न खाया तो क्या किया । इसलिए हम लोग चाट वाले की दुकान पर गए । चाट का रंग तगड़ा था पर स्वाद फीका । फिर हमने रसगुल्ले खाए जिसका जायका अच्छा था । पर मेले से अभी मन न भरा था । हम आगे बढ़ते-बढ़ते प्रदर्शनी के द्वार तक पहुँचे । पंक्ति में खड़े होकर भीतर पहुँचे । वहाँ तरह-तरह के स्टॉल थे ।

एक स्टॉल में परिवार नियोजन के महत्त्व को समझाया गया था । दूसरे में आधुनिक वैज्ञानिक कृषि से संबंधित जानकारी की भरमार थी । तीसरे में खान से खनिज पदार्थों को निकालने की विधि मॉडल के रूप में दर्शायी गई थी । चौथे में इक्कीसवीं सदी में भारत की उन्नति का चित्रण था । और आगे सब्जियों की विभिन्न किस्में रखी थीं । वहाँ एक ही मूली पाँच किलो की तथा एक ही लौकी पचास किलो की देखी । बड़ा ही अद्‌भुत लगा । प्रदर्शनी में प्रदूषण समस्या, शहरों की यातायात समस्या आदि बहुत सी बातों की जानकारी दी गई थी ।

हम प्रदर्शनी से बाहर निकले । भीतर बहुत शांति थी पर बाहर शोर ही शोर था । माइक से तरह-तरह की आवाजें निकल रही थीं । सभी आवाजें एक-दूसरे से टकरा कर गूँज रही थीं । कहीं सीटी, कहीं बाँसुरी, कहीं डमरू तो कहीं ढोल बज रहे थे । एक कोने में आदिवासियों का नृत्य चल रहा था । घुंघरुओं, मोर के पंखों तथा परंपरागत वस्त्रों से सज्जित आदिवासियों का लोक नृत्य दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ गया ।मेले में धूल, धुआँ, धक्का और शोर चरम सीमा पर था फिर भी लोगों को मजा आ रहा था । हर कोई अपनी धुन में था । सभी खुश दिखाई दे रहे थे । हम मेले का एक और चक्कर लगाकर मेला परिसर से बाहर निकल आए । मेला पीछे छूट गया पर मेले की यादें मेरे मन-मस्तिष्क में अभी तक अंकित हैं….. छब्बीस जनवरी का मेला!

Similar questions