मूल्य वृद्धि पर अनुच्छेद
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Explanation:
समाधान नहीं ढूँढ़ा गया तो हमारा राष्ट्रीय जीवन अस्त-व्यस्त हुए बिना नहीं रह सकता ।
वर्षों से दैनिक उपयोग और जीवन की आवश्यक वस्तुओं के मूल्य बढ़ते ही चले जा रहे हैं । परिणामस्वरूप विशाल जन-समुदाय के लिए जीवन-निर्वाह की समस्या कठिन-से-कठिन होती चली जा रही है । आज तो महँगाई जैसे मर्यादा की सीमा ही लाँघ गई है । रुपए का कोई मूल्य नहीं रह गया है । जो रुपया कभी अपने स्वामी को गर्व व आत्मविश्वास से भर देता था और जब जो भी वस्तु चाहे, खरीद सकता था, वह आज वेकार सिद्ध हो रहा है ।
आज १० रुपए का वही मूल्य है जो सन् १९४७ में १० पैसे का था । रुपए के इस मूल्य-हास का आखिर क्या कारण है ? वस्तुओं की इस दुर्लभता का आखिर क्या कारण है ? कहा जाता है कि स्वतंत्रता के दिन से हमारी राष्ट्रीय उत्पादन-क्षमता में बराबर वृद्धि होती आई है । पहले से हम अधिक खाद्यान्न उत्पन्न करते हैं । कपड़े का उत्पादन भी बढ़ गया है ।
सीमेंट, लोहा, कागज, दवाइयों आदि का उत्पादन कई गुना अधिक हो गया है । यदि भावों में वृद्धि इसी प्रकार होती रही तो आगे आनेवाला समय इनकलाब ला सकता है, क्योंकि सहनशक्ति की भी सीमा होती है । आखिर ऐसा क्यों है ? एक साधारण सा उत्तर तो यह है कि जब वस्तुओं की अधिकता होती है तब उनको क्रय करनेवाली मुद्रा का आपेक्षिक अभाव होता है ।
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् एक बार मंदी का दौर आया था, जब वस्तुओं का उत्पादन बहुत बढ़ गया था और उनको क्रय करने की शक्ति लोगों में नहीं रह गई थी । महायुद्ध के मध्य वस्तुओं के अभाव की जो स्थिति उत्पन्न हुई, वह उसकी समाप्ति पर भी बनी रही ।
देश की स्वतंत्रता के फलस्वरूप लोगों के मन में सुख-समृद्धि की जो आशा जगी थी, वह भी फलवती नहीं हो सकी । सरकारी योजनाओं के खर्च में वृद्धि होती गई; कागजी आँकड़ों के अनुसार हमारी उत्पादन क्षमता बढ़ती गई, पर जन-जीवन में सुख-सुविधा का अभाव भी बढ़ता गया ।
आज की स्थिति यह है कि जनता का असंतोष चरम सीमा को पार कर रहा है और आएदिन उसके विक्षोभ की लहरों से देश दोलित हो उठता है । निश्चय ही पंचवषर्यि योजनाएँ अपनाकर हम उत्पादन के हर क्षेत्र में पहले से काफी आगे बढ़े हैं । बहुत सी उपयोगी वस्तुएँ, जो पहले विदेशों से मँगानी पड़ती थीं, अब हम स्वयं तैयार करने लगे हैं ।