Hindi, asked by jatthimansu8594, 10 months ago

मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकणियों की भीख लुटाई" उपर्युक्त शब्द किसने कहे हैं?
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Answered by shishir303
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मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई" ये शब्द प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार ‘जयशंकर प्रसाद’ ने अपनी कविता ‘आह वेदना मिली विदाई’ में कही हैं।

उपरोक्त पंक्तियां जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘स्कंदगुप्त’ नाटक के देवसेना का गीत प्रसंग में ‘आह आह वेदना मिली विदाई’ नामक कविता से ली गई है। यह कविता देवसेना ने उस समय कही जब स्कंद गुप्त ने उसके प्रेम के भ्रम को तोड़ दिया। देवसेना स्कंद गुप्त से प्रेम करती थी परंतु स्कंदगुप्त के ह्रदय में देवसेना के लिए कोई प्रेम नहीं था। जब देवसेना को इस सच्चाई का पता चला तो उसके मन को बहुत पीड़ा हुई और उसी पीड़ा को उसने कविता के माध्यम से उकेरा।

इन पंक्तियों में उसके हृदय की वेदना प्रकट होती है वह अपने बीते पलों को याद करते हुए कहती है कि मैंने प्रेम के भ्रम में अपने जीवन भर की अभिलाषा को यूं ही गवा दिया। अब मेरे पास कोई भी अभिलाषा नहीं बची।

पूरी कविता नीचे दी गई है....

आह! वेदना मिली विदाई

मैंने भ्रमवश जीवन संचित,

मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण

आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण

मेरी यात्रा पर लेती थी

नीरवता अनंत अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में

गहन-विपिन की तरु छाया में

पथिक उनींदी श्रुति में किसने

यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी

रही बचाए फिरती कब की

मेरी आशा आह! बावली

तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर

प्रलय चल रहा अपने पथ पर

मैंने निज दुर्बल पद-बल पर

उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती

मेरी करुणा हा-हा खाती

विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे

इसने मन की लाज गँवाई

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