"मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई" - पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए |
Answers
मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई" - पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए |
इस पंक्ति का भाव यह है ,
जीवन में हमें कभी भी भ्रम में नहीं जीना चाहिए| हमेशा सत्य और आज में जीना चाहिए|
यह पंक्ति देवसेना की वेदना का परिचय देती है| वह स्कंदगुप्त से प्रेम कर बैठती है , परंतु स्कंदगुप्त में उसके लिए कोई स्थान और प्रेम नहीं था | वह स्कंदगुप्त को छोड़ कर चली जाती है| उन्हीं पलो को याद करके वह कहती है , प्रेम के भ्रम में मैंने अपना सारा जीवन भर अभिलाषाओं में लुटा दिया | अब मेरे पास जीवन में कुछ नहीं बचा है|
Answer:
देवसेना स्कंदगुप्त को चाहती थी किंतु स्कंदगुप्त माता के धनकुबेर की पुत्री विजया को चाहता था जीवन के अंतिम पड़ाव पर स्कंदगुप्त को देवसेना लेकिर तब देव सेना तेयार नही थी लेकिन तब देव सेना तैयार नहीं थी तब व्यक्ति अतिशय देवसेना सोचती थी कि मैंने अपने आकाश आरोपी पूंजी को भी की तरह बुझाया है मैंने अभिलाषा कर भी इस कमबख्त का प्रेम नहीं पा सके मुझे अब जीवन के अंतिम मोड़ पर इसी बात की वेदना है