"मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई"‐ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
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"मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई"‐ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
→ मालवा के शासक बंधुवर्मा की बहन देवसेना स्कंदगुप्त से गोपनीय प्रेम करती है, किंतु स्कंदगुप्त मालवा के धनिक की पुत्री विजया के प्रति आकर्षित है|
देवसेना की कोमल भावनाओं को इससे चोट पहुँचती है| हूणों के साथ युद्ध में बंधुवर्मा की मृत्यु होने पर देवसेना एकाकी हो जाती है|
विजया के विश्वासघात करने पर स्कंदगुप्त के द्वारा देवसेना को दिए गए प्रणय निवेदन को देवसेना ठुकरा देती है और राष्ट्रसेवा के लिए स्वयं को समर्पित कर देती है|
देवसेना अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर जब अपने अतीत की ओर देखती है, तो उसको स्कंदगुप्त का प्रणय निवेदन ठुकराना दुखी करता है|
उसे लगता है कि उसने भ्रमवश स्कन्द गुप्त के प्रेम की भावना को स्वार्थ भावना से प्रेरित मान लिया| उसे अनुभव होता है कि जीवन की संचित पूँजी, जो मधुकरियों की तरह थी,उसको उसने व्यर्थ गँवा दिया |
Answer:
मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई”‐ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। प्रस्तुत पंक्ति में देवसेना की वेदना का परिचय मिलता है। वह स्कंदगुप्त से प्रेम कर बैठती है परन्तु स्कंदगुप्त के हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। ... अर्थात् अभिलाषों के होने से मनुष्य के जीवन में उत्साह और प्रेम का संचार होता है
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