History, asked by mangalsiddtanmay, 2 days ago

मानूस स्वभाव____ आहै​

Answers

Answered by lohityaradhakrishnan
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Explanation:

उत्तर

यह मनुष्य का स्वभाव ही है, जो मनुष्य को विशेष बनाता है। हमारा स्वभाव पशुओं और बाकी की सृष्टि से भिन्न है, जिसके कारण हम सोच और महसूस कर सकते हैं। मनुष्य और बाकी की सृष्टि में एक सबसे महत्वपूर्ण विशेषता हमारे द्वारा तर्क करने की क्षमता का होना है। इस सृष्टि के किसी भी अन्य प्राणी के पास यह योग्यता नहीं पाई जाती है, और इसमें कोई विवाद नहीं हैं कि यह परमेश्‍वर की ओर से मनुष्य को दिया गया एक अद्वितीय वरदान है। हमारे सोचने की शक्ति हमें हमारे स्वयं के स्वभाव और परमेश्‍वर के स्वभाव के ऊपर आत्म चिन्तन करने के लिए सक्षम बनाती है, और उसकी सृष्टि के लिए परमेश्‍वर की इच्छा के ज्ञान का पता लेती है। परमेश्‍वर की सृष्टि के किसी भी अन्य भाग के पास सोचने की शक्ति नहीं है।

बाइबल शिक्षा देती है कि परमेश्‍वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में निर्मित किया है। इसका अर्थ यह हुआ है कि उसने हमें उसके प्रति उसकी व्यापकता और जटिल रूपरेखा के प्रति कुछ समझ होने की योग्यता प्रदान की है। हमारा मानवीय स्वभाव परमेश्‍वर के कुछ गुणों के ऊपर चिन्तन् कर सकता है, यद्यपि, वह ऐसा सीमित मात्रा में ही कर सकता है। हम प्रेम करते हैं क्योंकि हम उस परमेश्‍वर के स्वरूप के ऊपर सृजे गए हैं, जो प्रेम है (1 यूहन्ना 4:16)। क्योंकि हम उसके स्वरूप के ऊपर सृजे गए हैं, इसलिए हम तरस से भरे हुए, विश्‍वासयोग्य, सत्यता से भरे हुए, दयालू, कृपालु, धैर्यवान् और धर्मी हो सकते हैं। हम में, ये गुण पाप के द्वारा बिगड़ गए हैं, जो हमारे ही स्वभाव में रह रहा है।

मूल रूप से, मनुष्य का स्वभाव स्वयं में परमेश्‍वर के द्वारा सृजे हुए गुणों के कारण पूर्ण था। बाइबल शिक्षा देती है कि मनुष्य एक प्रेम से पूर्ण परमेश्‍वर के द्वारा "बहुत ही अच्छा" बनाया गया था (उत्पत्ति 1:31), परन्तु, उसकी भलाई आदम और हव्वा के पाप के कारण बिगड़ गई। परिणाम स्वरूप, पूरी की पूरी मानव जाति पाप के स्वभाव से पीड़ित हो गई। शुभ समाचार यह है कि जिस क्षण एक व्यक्ति यीशु मसीह की ओर मुड़ता है, वह इसी क्षण नए स्वभाव को प्राप्त करता है। दूसरा कुरिन्थियों 5:17 हमें बताता है, "इसलिए यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है : पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, सब बातें नई हो गई हैं!" पवित्रीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा परमेश्‍वर हम में नई सृष्टि को विकसित करते हुए हम में समय के व्यतीत होने के साथ ही और अधिक पवित्रता की वृद्धि के लिए हमें सक्षम करता है। यह इस "तम्बू" में वास करते हुए नए स्वभाव के साथ होने वाले युद्ध में मिलने वाली विजय और पराजय की एक प्रक्रिया है (2 कुरिन्थियों 5: 4) जिसमें — पुराना मनुष्य, पुराना स्वभाव, अर्थात् शरीर वास करता है। यह तक तक चलता रहेगा जब हम स्वर्ग में महिमा नहीं पा लेते तब हमारा नया स्वभाव उस परमेश्‍वर की उपस्थिति में अनन्त काल तक जीवित रहने के लिए स्वतन्त्र कर दिया जाएगा, जिसके स्वरूप में हम रचे गए हैं।

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