मानव एवं नागरिकों के अधिकारों की घोषणा में किस प्रकार बल दिया गया
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यह घोषणापत्र विश्व इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों में से एक है। इसे फ्रांस की क्रान्तिकारी राष्ट्रीय संविधान सभा ने 26 अगस्त 1789 में पारित किया था और वहाँ के राजा लूई (सत्रह) को इसे मजबूरन स्वीकार करना पड़ा। एक तरह से यह घोषणापत्र आधुनिक राज्यों का सैद्धान्तिक आधार बन गया। व्यक्ति व नागरिकों की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक शासन, कानून की सत्ता, कानून का दायरा...ये सब इसी घोषणापत्र के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। इसका महत्व हमें तब समझ में आएगा जब हम इससे पहले प्रचलित व्यवस्था पर कुछ नज़र डालेंगे।हले यूरोप व विश्व के अन्य भागों में राजाओं, महाराजाओं और बादशाहों का निरंकुश शासन चलता था। वे मानते थे कि उन्हें ईश्वर ने शासन करने का अधिकार दिया है और वे केवल ईश्वर के प्रति जवाबदेह हैं, जनता या लोगों के प्रति नहीं। लोगों पर वे अपनी मनमर्ज़ी के कानून लागू कर सकते हैं, लेकिन खुद उन पर कोई कानून लागू नहीं हो सकता। वे लोगों से मनचाहा कर वसूल कर सकते हैं, धन का उपयोग मनचाहे तरीके से कर सकते हैं। लोगों को उनके आदेशों का पालन करना होगा, वरना वे दण्डित किए जा सकते हैं। यूरोप में पन्द्रहवीं शताब्दी से ही इन धारणाओं के विरोध में सोच-विचार व आन्दोलन शुरू हो गए थे।
इसी बीच अमरीका में रहने वाले यूरोप के लोगों ने इंग्लैंड के शासन के खिलाफ विद्रोह करके एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राज्य स्थापित कर दिया था जिसमें कोई राजा नहीं था। इससे प्रेरणा लेकर फ्रांस में जब 1789 में क्रान्ति हुई तो क्रान्तिकारियों ने इस घोषणापत्र का ऐलान किया। इसे सभा में प्रस्तुत किया था माÐक्वस डी लाफायते (1757-1834) ने जिसने अमेरिका के स्वतंत्रता युद्ध में भाग लिया था। लाफायते ने घोषणापत्र का ड्राफ्ट थॉमस जेफरसन (1743-1826) को दिखाकर उसकी सलाह भी ली थी जो उस समय फ्रांस में अमेरिका के राजदूत थे। जेफरसन अमेरिकन क्रान्ति के वैचारिक नेता थे और बाद में राष्ट्रिपति भी बने।
अब हम इस घोषणापत्र को पढ़ते जाएँगे और साथ-साथ कुछ महत्वपूर्ण बातों पर विचार करते जाएँगे।
फ्रांस की राष्ट्रीय सभा द्वारा अनुमोदित, अगस्त 26, 1789
फ्रांसीसी लोगों के प्रतिनिधियों ने यह मानते हुए कि मनुष्य के अधिकारों के प्रति अज्ञानता, उनके प्रति उदासीनता, या उनका अनादर ही सार्वजनिक विपदाओं तथा सरकारों के भ्रष्ट होने का एकमात्र कारण है, मनुष्य के नैसर्गिक, अहस्तान्तरणीय और पवित्र अधिकारों को स्पष्ट रूप से घोषित करने का निर्णय लिया है। ...यह राष्ट्रीय सभा सर्वोच्च तत्व के सान्निध्य में मनुष्यों व नागरिकों के इन अधिकारों को स्वीकार करती है और उनकी घोषणा करती है:
इन अधिकारों को नैसर्गिक, अहस्तान्तरणीय और पवित्र कहा गया है। आगे इस बात को दोहराते हुए यह भी कहा गया है कि इन्हें किसी भी सूरत में छीना या त्यागा नहीं जा सकता है। इनके द्वारा क्रान्तिकारियों ने धर्म या ईश्वरीय शक्ति के आधार पर गठित राज्यों को अमान्य कर दिया और कहा कि मानवीय अधिकार मनुष्य के प्राकृतिक गुण हैं जिन्हें किसी भी हालात में नकारा नहीं जा सकता। मनुष्यों पर जो भी शासन होगा वह इन बुनियादी तथ्यों के आधार पर ही होगा।
1. सभी मनुष्य आज़ादी और समान अधिकारों के साथ पैदा होते हैं। उनके बीच सामाजिक अन्तर सामान्य भलाई के लिए ही हो सकता है।
2. सभी राजनैतिक समागमों का उद्देश्य है मनुष्यों के इन नैसर्गिक एवं न छीने जा सकने वाले अधिकारों की रक्षा। ये अधिकार हैं स्वतंत्रता, सम्पत्ति, सुरक्षा और अत्याचार का प्रतिरोध।
3. सम्पूर्ण सत्ता मूलत: राष्ट्र के ही पास होती है। कोई भी संस्था या व्यक्ति किसी भी ऐसे अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता है जो सीधे राष्ट्र द्वारा न मिला हो।
यहाँ किसी भी राजा या बादशाह के दैवी अधिकार को नकारा गया है। सत्ता राष्ट्र के रूप में संगठित लोगों की ही हो सकती है। उन्हीं से शासन को हर प्रकार का अधिकार प्राप्त होता है। अत: शासन की लोगों के प्रति जवाबदेही रहेगी।
4. स्वतंत्रता का मतलब है उन सभी चीज़ों को करने की आज़ादी जो किसी और को नुकसान न पहुँचाएँ; अत: हर मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के उपयोग की कोई सीमा नहीं हो सकती, सिवाय इसके कि समाज के दूसरे सदस्यों के ये अधिकार भी सुरक्षित रहें। इन सीमाओं को केवल कानून द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
इस अंश में स्पष्ट किया है कि हर व्यक्ति किसी और को नुकसान पहुँचाए बिना कुछ भी कर सकता है। एक व्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा सिर्फ तब आती है जब वह किसी दूसरे की स्वतंत्रता का हनन करे। इस सीमा का निर्धारण कोई खुद से नहीं कर सकता है। इसका निर्धारण एक खास तरह होगा जिसका खुलासा आगे किया गया है।
5. कानून केवल उन कार्यों को प्रतिबन्धित कर सकता है जो समाज के लिए हानिकारक हों। जिन कार्यों को कानून प्रतिबन्धित नहीं करता उन्हें और कोई रोक नहीं सकता है, न ही किसी को उन कार्यों को करने के लिए बाध्य किया जा सकता है जिनकी व्यवस्था कानून नहीं करता