मै प्रकृति बोल रही हुं निबंध आत्मकथा
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सुनो और धरती वालों! मैं प्रकृति बोल रही हूं।
वह प्रकृति जिसमें तुम पले-बड़े हो। मैं तुमको पुकार रही हूं। तुम मेरी पुकार ध्यान से सुनो। पहले मैं कितनी हरी-भरी थी। मेरे वृक्ष, मेरे पर्वत, मेरी नदी, मेरे समुंद्र सब कुछ स्वच्छ थे। मेरी हवा साफ थी, मेरी मिट्टी साफ थी। अब तुमने उन सबको गंदा कर दिया। मुझे दूषित कर दिया।
हे मानव! तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं में पढ़कर मेरा नाश करने में लगे हो। तुमने मेरे संसाधनों का भरपूर दोहन किया है। बिल्कुल निर्दयी बनकर। अब मैं खोखली होती जा रही हूं। मेरे अंदर कुछ नहीं बचा है। अब तो मुझ पर दया करो। तुम अब चेत जाओ। जाग जाओ नहीं तो तुमने जो मेरा नाश आज कर दिया है तो एक दिन मेरा कहर तुम पर टूट पड़ेगा। फिर तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं बचेगा।
मैं तुमसे कहना चाहती हूं कि अब मैं तुम्हारी गलत आदतों का बोझ उठाने में असमर्थ हूं। इसलिए अब मुझे बख्श दो मेरे पास जो थोड़ी बहुत संसाधन बचे हैं। तुम उनकी रक्षा करो। तभी मेरा अस्तित्व सुरक्षित रहेगा। मैं सही-सलामत रहूंगी, स्वच्छ रहूंगी तो तुम्हारा अस्तित्व सुरक्षित रहेगा। यदि मैं सही सलामत नहीं रही मेरा नाश करके तुम भी बच नहीं पाओगे। यह जान कर लो।
मैं प्रकृति बोल रही हूं। मैं पुकार रही हूं। तुम जाग जाओ। संभल जाओ। मेरा सम्मान करना सीखो।
Answer:NA
Explanation:please be clear a nibandh or atmkatha