Hindi, asked by pmunish398, 1 month ago

(मेरे बचपन की मधुर स्मृति) कहानी लिखे 100 -150 अक्षरों में।​

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Answered by manojdhakar733
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Answer:

इलाहाबाद छोड़े पूरे बत्तीस बरस बीत गए। बत्तीस वर्ष पूर्व आकाशवाणी की नौकरी के चलते इलाहाबाद छोड़ दिया था। लेकिन पिता जी, माता जी इलाहाबाद में ही रहते थे। इसलिए बीच-बीच में इलाहाबाद आना-जाना लगातार बना रहता था। वर्ष 2012 में माता जी के निधन के पश्चात जो इलाहाबाद छूटा, तो पिछले कुछ वर्षों में पूरी तरह छूट गया। पिछले अट्ठाईस वर्षों से लखनऊ में रहने के कारण अब इलाहाबादी कम और लखनौआ ज्यादा हो गए हैं।

अब इलाहाबाद जाने का मन भी नहीं करता। कारण कि पिछले वर्षों में इलाहाबाद के भीतर, देश के अन्य शहरों की तरह व्यापक बदलाव आये हैं। जनसंख्या के दबाव और गाँवों से शहरों की तरफ पलायन के कारण शहर में बड़े पैमाने पर आवासीय भवनों का निर्माण हुआ है। शहर जहाँ पहले दो नदियों के बीच सीमाबद्ध था, अब उसका विस्तार गंगा और यमुना नदी के तटबंधों को लांघ कर नये क्षेत्रों में हो गया।

(सौ, लूकर गंज के उस घर का एक दृश्य जिसमें शेखर जोशी रहा करते थे)

लेकिन मेरी स्मृतियों से उसी इलाहाबाद की स्थायी छवि अंकित है जो एक लम्बे समय तक अपरिवर्तनशील था। बीसवीं सदी के आखि़री वर्षों तक हम लोग आपस में यह कहते हुए ठहाके भी लगाते थे कि चाहे सारी दुनिया बदल जाए लेकिन अपना इलाहाबाद नहीं बदलने वाला। लेकिन इक्कीसवीं सदी की आहट को जैसे इलाहाबाद शहर ने बड़ी तीव्रता से सुना। सिविल लाइंस से ले कर हम लोगों का मुहल्ला लूकरगंज तक ऐसे बदलने लगे कि लगा जैसे पुराना शहर हमारे हाथों से तेजी से फिसल रहा है।

नाॅस्टेलाजिया का अपना आकर्षण है। हज़ारों साल के मानव समाज की स्मृतियाँ सहेज कर मनुष्य जाति पूरा जीवन गुज़ार देती है। मेरे पास तो निकट अतीत की स्मृतियाँ हैं। उन स्मृतियों को उसी रूप में देखने की इच्छा के चलते ही बदले हुए इलाहाबाद (अब प्रयागराज) को देखने की इच्छा नहीं होती।

इलाहाबाद में मेरा बचपन कई मायनों में विशिष्ट था। हम लोग लूकरगंज में रहते थे। लूकरगंज इलाहाबाद पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत एक मुहल्ला है। यह किन्हीं अंग्रेज लूकर साहब के नाम पर रखा गया है।

शेखर जोशी

पिछली सदी के साठ के दशक में यहाँ बड़े पैमाने पर बंगाली परिवारों (जो ब्रिटिश राज में चाकरी के लिए बंगाल से आ कर यहाँ बसे थे) और सिंधी परिवारों (जो विभाजन के पश्चात् शरणार्थी के रूप में यहाँ आये थे) के मकान थे। इसी लूकरगंज की एक अहातेनुमा रिहाईश में (जो टंडन जी का अहाता के नाम से प्रसिद्ध था) हमारा परिवार रहा करता था।

भैरव प्रसाद गुप्त

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