मेरे गांव की यादें पर लघुकथा
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गाँव के दिन मेरे जीवन के सुनहरे दिनों में से एक हैं मैं उन दिनों को २० या ४० पंक्तियों में बयां नहीं कर सकता वो सुबह चिड़िया दूधिया चिल्लाने लगती है वो अखबार वाला जो रोज आकर मेरी खिड़की का शीशा तोड़ता है रोज दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता है, मिट्टी में गंदा हो जाता है और फिर डांट सहता उन मैदानों में दौड़ना और मोहल्ले से आम चुराना सोने की चीजों में से एक था
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• गाँव के सभी वर्णों के लोग बिना किसी भेदभाव के रहते है ! मेरे गाँव के लोग बहुत उद्यमी और संतोषी है ! गाँव के लोगों की सभी जरूरतों की पूर्ति गाँव के लोग ही विविध ग्र्होद्योगों के माध्यम से करते है ! कभी-कभी मेरे गाँव में भजन-कीर्तन का कार्यक्रम भी होता है !!!
• शाम से सुबह तक घूमता रहाअपने कुछ खोये वस्तुओं की तलाश में।पर शहरों की कालिख पुती सड़कों पर,पक्के बिल्डिंगों और स्ट्रीट लैम्प पोस्टों के बीच चक्कर काट -काट कर थक गया।नहीं मिला मेरा बचपन का खोया चाँद,टिमटिमाते तारे और वाँसवाड़ी की भगजोगनियाँ। मन विचलित है सुबह से,"गौरैयों "को देखे वर्षों बीत गये ,खपड़ैल फूस के छप्पर कहाँ,जहाँ रैन बसेरा हों इन घरेलू पक्षियों का।
• "चुनमुनियों","मैनों"को कोई डर नहींबागों -फुलवाड़ियों में संग-संग खेलती थीं। मैं अपनी आदत के अनुसार ,"कठफोड़वा "को निहारता,वे पेड़ों के तनों को किस कदर अपने सख्त चोंच से खोदते ।मालूम है "बगुलों"के झुंड एक साथबाढ़ के बाद सूखते !!!
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