मीरा के काव्य में विरह की अनुभूति अपनी चरम सीमा पर है- स्पष्ट
कीजिए।
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अपने प्रभु से मिलने के वह आतुर है। इसके लिए वह उनकी सेविका भी बनने से नहीं हिचकिचाती। वहाँ सेविका बनकर यह उनके विरह की चरम सीमा है, जहाँ एक भक्त को दास स्वरूप भी भाता है।
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मीरा अपने आराध्य कृष्ण से मिलना चाहती है। अपने प्रभु से मिलने के लिए वह आतुर है। इसके लिए वह उनकी सेविका भी बनने से नहीं हिचकिचाती। वहाँ सेविका बनकर वह हर कार्य करना चाहती, जिससे अपने आराध्य के दर्शन पा सके। यह उनके विरह की चरम सीमा है, जहाँ एक भक्त को दास स्वरूप भी भाता है।
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