मेरे ‘मैं’ की संज्ञा भी इतनी व्यापक है,इसमें मुझ-से अगणित प्राणी आ जाते हैं।मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है।मैं खंडहर को फिर से महल बना सकता हूँ।जब-जब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं,प्रलय-मेघ भूचाल देख मुझको शरमाए।मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्याअगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।
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apne aap ko bahut achcha discribe kar lete ho
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