मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज़ को पंछी, फिरि जहाज़ पर आवै।। कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै। परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै।। जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै। सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै। Con0 (2) चरण कमल बंदी हरि राई। जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कुछ दरसाई।। बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई।। 'सूरदास' स्वामी करुणामय, बार-बार बंदौ तेहि पाई।।
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