'मेरा प्रिय साहित्यकार कबीर' विषय पर अनुच्छेद लिखेंl
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मेरे प्रिय कवि कबीर का जन्म 1339 ई. में काशी में हुआ। कहा जाता है कि दनका जन्म एक धिवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ और वह लोक-लाज के डर से इन्हें लहरतारा नामक तालाब के निकट छोड़ गई। नीम और नीरू नामक जुलाहा दम्पति ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी शिक्षा-दिक्षा ठीक ढंग से नही हो पाई। इन्होने स्वयं लिखा है-
’’मसि कागद छुऔ नांहि, कलम गही नहिं हाथ।’’
मुझे कबीर का निडर स्वभाव बहुत भाता है। उन्होंने सामाजिक क्रांति का कार्य साहसिक ढंग से किया। उन्होंने तत्कालीन समाज में फैले हुए ढोंग, आडंबरों, जाति-पाति के भेदभाव एवं अन्य कुरीतियों पर डटकर प्रहार किया। उन्होंने कहा-’’जाति-पाति पूछे न कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।’’
कबीरदास युग संधि पर पैदा हुए थे। उस समय समाज पर हठयोगियों, नाथपंथी साधुओं का बडा प्रभाव था। कबीर ने पक्षपात रहित होकर हिन्दुओं और मुसलमानों को उनके ढोंग-आडम्बरों के लिए फटकारा। तीर्थ, व्रत, माला फेरना, रोजा, नमाज आदि पर चोट की। उन्होने माला फेरने का विराध करते हुए कहा।
माला फेरत जुग भया, फिर न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।।
इसी प्रकार मुसलमानों के मस्जिद में अजान देने की रीति को व्यर्थ बताते हुए कहा-
’’कांकार-पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।’’
कबीर के व्यक्तित्व में विरोधी तत्वों का समन्वय था। एक साथ ही वे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। संत भी वे थे और गृहस्थ भी। वे कवि और समाज सुधारक थे और समाज के विभिन्न वर्गो में एकता उत्पन्न करने वाले उपदेशक भी थे। उन्होंने स्वयं कोई धर्म-संप्रदाय नहीं चलाया, पर आज भी हजारों व्यक्ति स्वयं को कबीरपंथी कहने में गर्व का अनुभव करते है। इन्हीं विशेषताओं के कारण कबीरदास मेरे प्रिय कवि बने है।
संतो और महात्माओं का सत्संग कबीर को बहुत अच्छा लगता था। संतों-महात्माओं से उन्होने बहुुत ज्ञान प्राप्त कर लिया था। अपने अनुभव से उन्हें जो ज्ञान मिलता था, उसे वे पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान से महत्व देते थे। उन्होंने स्वयं कहा है-
’’पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।’’
मेरे प्रिय कवि कबीर लोई नामक स्त्री से विवाह करके पूर्ण गृहस्थ बन गए थे। उनका गृहस्त -जीवन सुखी था। दोनों मिलकर अपना व्यवसाय चलाते थे। उनके एक पुत्र भी हुआ। उसका नाम कमाल था। जब वह बड़ा हुआ तो उसने परिवार के व्यवसाय को संभल लिया और कबीरदास धर्म के कामों में पूरी तरह लग गए।
कबीरदास अपने गुरू का बड़ा सम्मान करते थे। मुझमें गुरू के प्रति श्रद्धा उन्हीं के इस दोहे के पे्ररणास्वरूप आई है-
’’गुरू गोविंद दोऊ खडे, काके लागूँ पाँय।
ब्लिहारी गुरू आपने जिन गोविंद दियौ मिलाय ।’’
उनका कथन था कि गुरू की कृपा से ही ईश्वर ज्ञान प्राप्त होता है।
कबीरदास का देहांत लगभग छः सौ वर्ष पूर्व हो गया था, फिर भी वे आज भी जन-जन के प्रिय कवि हैं। मेरे तो सर्वप्रिय कवि हैं ही।
Explanation:
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Explanation:
हिन्दी साहित्य के अथाह समुद्र में अनेंक रत्न भरे पड़े है, पसन्द अपने-अपने मन की बात है। मैं जब कभी भक्तिकालीन संत कवि कबीरदास को पढ़ता हुँ तो मेरा मस्तक उनके सम्मुख श्रद्वा से नत हो जाता है तब मुझे वही संत सबसे अधिक प्रकाशवान् प्रतीत होता है। मेरे प्रिय कवि उस समय ज्ञान का दीपक लेकर अवतरित हुए, जब समस्त संसार अज्ञान के अंधकार मंे डूबा हुआ था। उन्होंने अपने ज्ञान-रूपी दीपक का प्रकाश जन-जन के कत्याण के लिए फैलाया।
मेरे प्रिय कवि कबीर का जन्म 1339 ई. में काशी में हुआ। कहा जाता है कि दनका जन्म एक धिवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ और वह लोक-लाज के डर से इन्हें लहरतारा नामक तालाब के निकट छोड़ गई। नीम और नीरू नामक जुलाहा दम्पति ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी शिक्षा-दिक्षा ठीक ढंग से नही हो पाई। इन्होने स्वयं लिखा है-
’’मसि कागद छुऔ नांहि, कलम गही नहिं हाथ।’’
मुझे कबीर का निडर स्वभाव बहुत भाता है। उन्होंने सामाजिक क्रांति का कार्य साहसिक ढंग से किया। उन्होंने तत्कालीन समाज में फैले हुए ढोंग, आडंबरों, जाति-पाति के भेदभाव एवं अन्य कुरीतियों पर डटकर प्रहार किया। उन्होंने कहा-’’जाति-पाति पूछे न कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।’’
कबीरदास युग संधि पर पैदा हुए थे। उस समय समाज पर हठयोगियों, नाथपंथी साधुओं का बडा प्रभाव था। कबीर ने पक्षपात रहित होकर हिन्दुओं और मुसलमानों को उनके ढोंग-आडम्बरों के लिए फटकारा। तीर्थ, व्रत, माला फेरना, रोजा, नमाज आदि पर चोट की। उन्होने माला फेरने का विराध करते हुए कहा।
माला फेरत जुग भया, फिर न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।।
इसी प्रकार मुसलमानों के मस्जिद में अजान देने की रीति को व्यर्थ बताते हुए कहा-
’’कांकार-पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।’’
कबीर के व्यक्तित्व में विरोधी तत्वों का समन्वय था। एक साथ ही वे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। संत भी वे थे और गृहस्थ भी। वे कवि और समाज सुधारक थे और समाज के विभिन्न वर्गो में एकता उत्पन्न करने वाले उपदेशक भी थे। उन्होंने स्वयं कोई धर्म-संप्रदाय नहीं चलाया, पर आज भी हजारों व्यक्ति स्वयं को कबीरपंथी कहने में गर्व का अनुभव करते है। इन्हीं विशेषताओं के कारण कबीरदास मेरे प्रिय कवि बने है।
संतो और महात्माओं का सत्संग कबीर को बहुत अच्छा लगता था। संतों-महात्माओं से उन्होने बहुुत ज्ञान प्राप्त कर लिया था। अपने अनुभव से उन्हें जो ज्ञान मिलता था, उसे वे पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान से महत्व देते थे। उन्होंने स्वयं कहा है-
’’पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।’’
मेरे प्रिय कवि कबीर लोई नामक स्त्री से विवाह करके पूर्ण गृहस्थ बन गए थे। उनका गृहस्त -जीवन सुखी था। दोनों मिलकर अपना व्यवसाय चलाते थे। उनके एक पुत्र भी हुआ। उसका नाम कमाल था। जब वह बड़ा हुआ तो उसने परिवार के व्यवसाय को संभल लिया और कबीरदास धर्म के कामों में पूरी तरह लग गए।
कबीरदास अपने गुरू का बड़ा सम्मान करते थे। मुझमें गुरू के प्रति श्रद्धा उन्हीं के इस दोहे के पे्ररणास्वरूप आई है-
’’गुरू गोविंद दोऊ खडे, काके लागूँ पाँय।
ब्लिहारी गुरू आपने जिन गोविंद दियौ मिलाय ।’’
उनका कथन था कि गुरू की कृपा से ही ईश्वर ज्ञान प्राप्त होता है।
कबीरदास का देहांत लगभग छः सौ वर्ष पूर्व हो गया था, फिर भी वे आज भी जन-जन के प्रिय कवि हैं। मेरे तो सर्वप्रिय कवि हैं ही।