मेरी सैनिक बनने की अभिलाषा पर अनुच्छेद
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अपने विद्यार्थी काल में ही अधिकतर विद्यार्थी अपने जीवन में कुछ न कुछ बनने की कामना करने लगते हैं। कुछ लोग तो अपने माता-पिता की अभिलाषा के अनुकूल ही भविष्य में कोई भी मार्ग ग्रहण करने की सोचते हैं और कुछ लोग अपनी रुचि के अनुकूल ही कुछ बनने का लक्ष्य निर्धारित करते हैं। अधिकतर विद्यार्थी डॉक्टर, इन्जीनियर, औफेसर, वकील आदि बनने की ही सोचते हैं। इधर अब हमारे साथी सेना में जाने के लिए भी उत्साहित रहते हैं। लेकिन इसमें भी अधिकतर ‘पाइलेट आफिसर नेवी में आफिसर या लेफ्टीनेट बनने की अभिलाषा ही करते हैं। जिन के माता-पिता के पास अपना अच्छा व्यापार है वे केवल अच्छी शिक्षा लेकर अपने पिता के ही व्यापार में हाथ बंटाना चाहते हैं। आजकल के विद्यार्थी टेक्नीकल शिक्षा की ओर भी विशेष ध्यान देते हुए इसी ओर अपना मार्ग ढूंढने का प्रयास करते हैं। मैं यह सब जानता हूं। क्योंकि मैं इस समय दसवीं कक्षा में पढ़ रहा हूं और मेरे सहपाठी इस सम्बन्ध में बात करते हैं। अब जब मेरी बारी है तो मैं उन्हें और आपको बता देना चाहता हूँ कि मैं सैनिक बनना चाहता हूं और तब उन्नति करता हुआ अधिकारी बनना चाहता हूँ।
सैनिक बनने की अभिलाषा क्यों ? -मेरी एक सैनिक बनने की अभिलाषा क्यों है, यह आप जानना चाहेंगे। वास्तव में मेरी यह अभिलाषा के साथ एक छोटी सी घटना भी जुड़ी हुई है। घटना इस प्रकार है। यह पिछले ही महीने की बात है मैं स्कूल में छुट्टी होने के बाद बस के लिए बस स्टैण्ड पर खड़ा था। उसी समय दो सैनिक अपने सामान को लेकर वहीं पर आ गए और मेरे साथ ही खड़े हो गए। कुछ समय पश्चात् बस आई और मैं तथा वे लोग उसी बस में सवार हो गए। उन दिनों बसों को अपने निश्चित स्थान पर बजे अवश्य ही पहुंचना होता था। बस जब भर गई और सारे लोग अपने-अपने स्थान पर बैठ गए तो बस चल पड़ी। बस अपनी गति से चल रही थी कि अचानक मेरे पेट में दर्द होने लगा। दर्द धीरे-धीरे बढ़ने लगा तथा मैं इसे सह न सका तो मेरे मुख से एक चीख निकल पड़ी ओर में उन सैनिको पर लुढ़क गया। मैं धीरे-धीरे होश खोता जा रहा था। बसमैं बैठे लोग मेरी तरफ पहले तो देखने लगे लेकिन की धीरे-धीरे वे मेरे प्रति ध्यान दिए बिना अपनी ही बातों मैं खो गए। लेकिन उन सैनिको मैं एक ने मुझे सहारा दिया तथा दूसरे ने मेरा सर अपनी गोदमैं रख लिया। अचानक मुझे कै हो गए। बस मैं बैठे अन्य लोग मुझे गृणा की द्रिष्टि से देखने लगे। ड्राइवर तथा कंडक्टर ने मुझे भला-बुरा भी कहा लेकिन मैं विवश से एक ने जिनकी मैं गोद में मेरा सिर था, धीरे से मेरा सिर उठाया और सीट पर रखा। उन्होंने बैंग से अपना तौलिया निकाला तथा पहले मेरा मुंह साफ किया और उसके बाद अपने कपड़े। पानी के लिए उनके पास सैनिकों का ही जैसा कपड़े का थैला था। ड्राइवर से बस रुकवाकर उन्होंने भली प्रकार से मुझे मुंह साफ करवाया तथा फिर ठीक प्रकार से अपनी ही गोद में मेरा सिर रखा। कै होने के बाद मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगा। उनकी असुविधा के लिए मैंने उनसे क्षमा माँगी। लेकिन उन्होंने मुझे समझाया कि इसमें क्षमा की कोई बात नहीं। जीवन में कभी भी किसी के साथ इस प्रकार की घटनाएं हो जाती हैं लेकिन हमें अपने कर्तव्य का तो ध्यान रखना ही चाहिए। हमें तो इस प्रकार की सेवा-भावना सिखाई जाती है और यह हमारा कर्तव्य बनता है। उनकी इस बात का मुझ पर गहरा असर पड़ गया है और आज भी मैं इस बात के प्रति कृत-संकल्प हूं कि मैं जीवन में सैनिक ही बनूँगा और अपने जीवन को इनके ही आदर्श के अनुरूप ढालूगा।
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