मौर्य प्रशासन की विशेषताओ को स्पष्ट कीजिए और अशोक के धाम के सिद्धांतों की व्याख्या
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मौर्य राजवंश (322-185 ईसापूर्व) प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था। मौर्य राजवंश ने १३७ वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री चाणक्य (कौटिल्य) को दिया जाता है।
Explanation:
मौर्य शासकों की सूची
चंद्रगुप्त मौर्य – 322-298 ईसा पूर्व (24 वर्ष)
बिन्दुसार – 298-271 ईसा पूर्व (28 वर्ष)
अशोक – 269-232 ईसा पूर्व (37 वर्ष)
कुणाल – 232-228 ईसा पूर्व (4 वर्ष)
दशरथ –228-224 ईसा पूर्व (4 वर्ष)
सम्प्रति – 224-215 ईसा पूर्व (9 वर्ष)
शालिसुक –215-202 ईसा पूर्व (13 वर्ष)
देववर्मन– 202-195 ईसा पूर्व (7 वर्ष)
शतधन्वन् – 195-187 ईसा पूर्व (8 वर्ष)
बृहद्रथ 187-185 ईसा पूर्व (2 वर्ष)
३२२ ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य की सहायता से अन्तिम नंद शासक घनानन्द को युद्ध भूमि मे पराजित कर मौर्य वंश की नींव डाली थी।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों को पराजित कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य गणतन्त्र व्यवस्था पर राजतन्त्र व्यवस्था की जीत थी। इस कार्य में अर्थशास्त्र नामक पुस्तक द्वारा चाणक्य ने सहयोग किया। विष्णुगुप्त व कौटिल्य उनके अन्य नाम हैं।
चन्द्रगुप्त मौर्य (३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.)- चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म वंश के सम्बन्ध में विवाद है। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलता है।
विविध प्रमाणों और आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह तर्क निर्धारित होता है कि चन्द्रगुप्त मोरिय वंश का क्षत्रिय था। चन्द्रगुप्त के पिता मोरिय नगर प्रमुख थे। जब वह गर्भ में ही था तब उसके पिता की मृत्यु युद्धभूमि में हो गयी थी। उसका पाटलिपुत्र में जन्म हुआ था तथा एक गोपालक द्वारा पोषित किया गया था। चरावाह तथा शिकारी रूप में ही राजा-गुण होने का पता चाणक्य ने कर लिया था तथा उसे एक हजार में कषार्पण में खरीद लिया। तत्पश्चात् तक्षशिला लाकर सभी विद्या में निपुण बनाया। अध्ययन के दौरान ही सम्भवतः चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था। ३२३ ई. पू. में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी तथा उत्तरी सिन्धु घाटी में प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या हो गई।
संसार के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरन्तर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान सम्भव था, अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है, "धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।" आगे कहा गया है कि, "प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।"
ब्रह्मगिरि शिलालेख में इन गुणों के अतिरिक्त शिष्य द्वारा गुरु का आदर भी धम्म के अंतर्गत माना गया है। अशोक के अनुसार यह पुरानी परम्परा है।
तीसरे शिलालेख में अशोक ने अल्प व्यय तथा अल्प संग्रह का भी धम्म माना है। अशोक ने न केवल धम्म की व्याख्या की है, वरन् उसने धम्म की प्रगति में बाधक पाप की भी व्याख्या की है - चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या पाप के लक्षण हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इनसे बचना चाहिए।
अशोक ने नित्य आत्म-परीक्षण पर बल दिया है। मनुष्य हमेशा अपने द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को ही देखता है, यह कभी नहीं देखता कि मैंने क्या पाप किया है। व्यक्ति को देखना चाहिए कि ये मनोवेग - चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, ईर्ष्या, मान—व्यक्ति को पाप की ओर न ले जाएँ और उसे भ्रष्ट न करें।
कलिंग युद्ध के बाद ही अशोक अपने शिलालेखों के अनुसार धम्म में प्रवृत्त हुआ। यहाँ धम्म का आशय बौद्ध धर्म लिया जाता है और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। बौद्ध मतावलम्बी होने के बाद अशोक का व्यक्तित्व एकदम बदल गया। आठवें शिलालेख में जो सम्भवत: कलिंग विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, अशोक ने घोषणा की- 'कलिंग देश में जितने आदमी मारे गये, मरे या क़ैद हुए उसके सौंवे या हज़ारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दु:ख का कारण होगा।' उसने आगे युद्ध ना करने का निर्णय लिया और बाद के 31 वर्ष अपने शासनकाल में उसने मृत्युपर्यंत कोई लड़ाई नहीं ठानी। उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी परामर्श दिया कि वे शस्त्रों द्वारा विजय प्राप्त करने का मार्ग छोड़ दें और धर्म द्वारा विजय को वास्तविक विजय समझें।