Hindi, asked by acchu3923, 12 hours ago

((४) 'मेरा यात्रानुभव' परआपके विचार लिखिए।​

Answers

Answered by bijo7979
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Explanation:

एक सच्चा यात्रा अनुभव तब होता है जब आप पूरी यात्रा को खरोंच से याद करते हैं। इसमें आदर्श रूप से इतने विशेष क्षण शामिल होने चाहिए कि आप बस अपनी आँखें बंद कर सकें और वस्तुतः आपके द्वारा छोड़े गए समय, आने-जाने की यात्रा के साथ-साथ रास्ते में और अपने प्रवास के दौरान आपने जो अनुभव किया, उसका अनुभव कर सकें।

Answered by ADVENTUREDAY09
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Explanation:

नानिगाव कि यात्रा।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में दो जगह तो ऐसी होती ही हैं, जहाँ उसका अच्छा मानसम्मान होता है और जहाँ से उसकी भावनाएँ जुड़ी होती हैं - एक पैतृक जन्मस्थान और एक मातृ का जन्मस्थान। वैसे तो एक जगह और होता है जहाँ से मानसम्मान की आशा रखी जा सकती है और वो जगह है ससुराल। लेकिन ये स्थान सिर्फ विवाहित व्यक्तियों के पास होता है।

एक बार फिर मुझे नानीगांव जाने का अवसर मिला। दिन तो गर्मी का था पर प्रकृति माँ का भी साथ प्राप्त था अर्थात वातावरण बादलनुमा था, कभी कभी हल्की बूंदाबांदी भी हो रही थी। गर्मी के दिनों में वैसे अगर आवश्यक न हो तो यात्रा सुबह या शाम में करने में ही समझदारी है, नहीं तो शरीर बुरा मान जाता है और अभ्यास न होने पर खुद को बीमार भी बना देता है।

कहने का मतलब यही है कि हमलोगों ने सुविधानुसार यात्रा करने के लिए शाम के समय को उपयुक्त माना और शाम होने पर जिस स्थान को उस दिन का गंतव्य माना था, वहां की ओर खुशी-खुशी प्रस्थान किये।

एक ध्रुव सत्य है कि घर से बाहर निकलने पर व्यक्ति का सामना भीड़ से होता है। वैसे मेरे अनुभव से प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में दो तरह के भीड़ का सामना करना पड़ता है, जिसमें एक तरह की भीड़ तो बाहरी होती है पर दूसरे तरह की भीड़ का संबंध हमारे खुद से है। आमतौर पर ये भीड़ व्यक्ति को कभी अकेला नहीं छोड़ती। इस भीड़ का नाम है विचारों की भीड़।यदि कोई व्यक्ति इस भीड़ पर नियंत्रण करना जान जाता है तो वही संत कहलाता है और जो व्यक्ति इस भीड़ में गुम हो जाता है उसे संसारी कहते हैं। भीड़ तो चाहे बाहरी हो या भीतरी खतरनाक ही होती है जो व्यक्ति से खुद की स्वतंत्र पहचान छीन कर उसे गुमनामी में धकेलती है। अतः इस भीड़ से मुक्ति तो पानी ही चाहिए। मुक्ति का अर्थ ये नहीं कि एकांत में जंगल में चले जाना। मुक्ति तो एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति जो स्वयं को जान चुका होता है वो संसार में रहकर भी संसार से अलग होता है। भीड़ में रहकर भी स्वयं की पहचान को गुम नहीं होने देता है। भीतर की भीड़ में आत्मा की पहचान तथा बाहर की भीड़ में आत्मा तथा शरीर की पहचान को बनाये रखता है।

हमलोगों ने अपनी यात्रा भीड़ में ही प्रारंभ की। नानीगांव जाने में सबसे पहली बाधा आती है वाहन की। वैसे तो साईकल से भी जाया जा सकता है, जिससे जाने में लगभग 1घंटे 15 मिनट का समय लगता है। पर ईश्वर ने इस तरह से मानव के शरीर को बनाया है कि विभिन्न शोध के बाद ये बात साबित हो गयी है कि व्यक्ति को सिर्फ 30 मिनट द्विपाद चक्र का इस्तेमाल करनी चाहिए। वैसे जरूरत के समय अवधि बढ़ जाये तो अलग बात है।

दूसरी बात कि नानीगांव जाने के लिए टेम्पू सेवा प्रारम्भ रहती है तो हम टेम्पू में बैठ गए। वहां मौजूद दो व्यक्तियों की गुफ्तगू से पता चला कि ये सेवा सात बजे रात्रि तक तो सामूहिक होती है फिर आरक्षित, जो 9 बजे रात्रि तक जारी रहती है। मतलब ये की यदि सात बजे के बाद किसी व्यक्ति को जाना हो तो वो 250 या 300 रुपये का किराया शुल्क अदा कर जा सकता है।टेम्पू तो जब तक सवारी से भर नही जाती तब तक नहीं खुलती। कभी कभी तो 2 घंटे भी भरने में लग जाते हैं तो समझदारी इसी में रहती है कि या तो नींद के आगोश में चले जाएं या उसी वाहन में बैठ कर सड़क पर आने जाने वाले मूर्तियों के दर्शन करते रहें। पर ये कार्य मुझे अच्छा नहीं लगता है और नींद पहले ही पूरी कर लेने के कारण सो भी नहीं सकता था। अतः मजबूरन बैठ कर चिंतन करने को ही उपयुक्त माना ।

जहां पर टेम्पू लगती है वहां से कुछ ही दूरी पर ताजपुर में मछली बाजार है तो मन को विक्षिप्त करने की सामर्थ्य रखने वाले उस दुर्गन्ध का भी सामना करना पड़ता है। साथ ही बकरी के बेटे(मेमने) को मारकर उसके सिर को तख्त पर और शरीर के शेष हिस्से को टांग कर रखी जाने की प्रथा वहां दशकों पुरानी है। ऐसे में कुछ ऐसे विचार आये जिसका वर्णन करना सभी के लिए यहां उपयुक्त नहीं होगा। सवारी से भर जाने के फलस्वरूप टेम्पू धीरे-धीरे अपने चाल में आगे बढ़ने लगी। सभी सवारियों को उनके स्थान पर उतारने के पश्चात मेरा भी गंतव्य आ गया। चूंकि रुकने की योजना बनी थी।अतः निश्चिन्त होकर घूमने का पूरा मौका था।

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