मौसम और जलवायु
ने से किसमें तेजी से परिवर्तन
स्वतन होता
मौसम में जलवायु
की अपेक्षा तेजी से परिवर्तन होला है।
सारणी की पूरा करें।
दिनांक
सूयदिय रैनुयास्त
10.05.200
23-052020
Answers
Answer: जलवायु परिवर्तन ऐसे दो शब्द हैं, जिनके बारे में आप इन दिनों अक्सर सुन रहे होंगे। आखिर इस विषय पर इतनी चर्चा क्यों हो रही है? यह कुछ ऐसा विषय नहीं है जिसके लिये मौसम वैज्ञानिकों को चिन्ता करनी चाहिए? यह किस प्रकार से हमारे और आपके लिये चिन्ता का विषय है? हाँ! इसी बारे में हम मिलकर पता लगाएगे। यह पुस्तिका इसमें हमारी सहायता करेगी। आइए हम इनमें से प्रत्येक शब्द को समझते हुए आरम्भ करते हैं।
जलवायु क्या है?
एक कहावत के अनुसार जलवायु वह है जिसकी आप उम्मीद करते हैं; मौसम वह है जो कि हमें मिलता है। हम प्रायः ‘जलवायु’ एवं ‘मौसम’ शब्द में अन्तर नहीं कर पाते हैं। मौसम वह है जो रोज रात को टीवी पर दर्शाया जाता है जैसे विभिन्न स्थानों पर अधिकतम एवं न्यूनतम तापमान, बादलों एवं वायु की स्थिति, वर्षा का पूर्वानुमान, आर्द्रता आदि। निर्धारित समय पर किसी स्थान पर बाह्य वातावरणीय परिस्थितियों में होने वाला परिवर्तन, मौसम कहलाता है।
जलवायु शब्द किसी स्थान पर पिछले कई वर्षों के अन्तराल में वहाँ की मौसम की स्थिति को बताता है।
जलवायु वैज्ञानिक, किसी स्थान विशेष की जलवायु का पता लगाने के लिये कम-से-कम 30 वर्षों के मौसम की जानकारी को आवश्यक मानते हैं। जलवायु से हमें कोई स्थान कैसा है यह पता चलता है। उदाहरण के लिये, अहमदाबाद एवं दिल्ली की जलवायु सामान्यतः शुष्क है; इसके विपरीत मुम्बई एवं विशाखापत्तनम में जलवायु आर्द्र है; बंगलुरु एवं पुणे की जलवायु सुहावनी है, जबकि कोच्चि में मुख्यतः वर्षायुक्त जलवायुवीय परिस्थितियाँ हैं।
निम्न बिन्दुओं में क्या समानता है?
1. न्यूजीलैंड के वातानुकूलित सुपर बाजार से आयातित सेबों को खरीदना
2. जुलाई 2005 में मुम्बई शहर में 24 घंटे में 944 मिमी. वर्षा का होना।
3. महंगे उत्पादों का आकर्षक प्रचार-प्रसार।
4. वर्ष 2005 की गर्मियों में यूरोप में चली लू के कारण 20,000 से भी अधिक लोगों की मृत्यु।
5. ज्यादा-से-ज्यादा लोगों का मलेरिया या डेंगू जैसी बीमारियों से प्रभावित होना।
ये सभी बिन्दु किसी न किसी तरह से जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित हैं।
क्या है परिवर्तन?
जलवायु का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक अभी भी इस तर्क-वितर्क में उलझे हैं कि पृथ्वी किस दर से गर्म हो रही है तथा यह कितनी अधिक गर्म होगी। परन्तु वे इस बात से सहमत हैं कि वास्तव में पृथ्वी गर्म हो रही है।
उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि आज विश्व पिछले 2000 वर्षों के किसी भी समय की अपेक्षा ज्यादा गर्म है। 20वीं शताब्दी के दौरान वैश्विक तापमान लगभग 0.60C तक बढ़ा है।
मौसम में परिवर्तन थोड़े समय में ही हो सकते हैं। एक घंटे के लिये बरसात हो सकती है और इसके बाद तेज धूप भी निकल सकती है। जलवायु में भी परिवर्तन हो सकता है। जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक है एवं पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन होता रहा है। अतीत के हिमयुग इस जलवायु परिवर्तन का ही एक उदाहरण हैं। अतीत में ऐसे परिवर्तन होने में बहुत लम्बा समय लगा, परन्तु वर्तमान में परिवर्तनों का दर काफी तेज है और इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप पृथ्वी तेजी से गर्म हो रही है।
क्या मानव जलवायु में परिवर्तन ला सकते हैं?
एक समय में सभी जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक हुआ करते थे। लगभग 220 वर्षों पहले औद्योगिक क्रान्ति आई जिसके फलस्वरूप मशीनों द्वारा भारी मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन किया जाने लगा। मशीनों को चलाने के लिये ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसके लिये ज्यादातर ऊर्जा कोयले एवं तेल जैसे ईंधनों से प्राप्त होती है जिन्हें ‘जीवाश्म ईंधन’ कहते हैं। जब इन जीवाश्म ईंधनों को जलाया जाता है तब कार्बन डाइऑक्साइड वायु उत्सर्जित होती है। औद्योगिकीकरण के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, ओजोन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी वायुओं का उत्सर्जन भी बढ़ा है। इन वायुओं को ‘ग्रीनहाउस वायु’ (गैस) कहते हैं। पिछले 200 वर्षों के दौरान हमारी गतिविधियों के कारण वायुमण्डल में ग्रीनहाउस वायुओं की विशाल मात्रा उत्सर्जित हुई है। अब यह सुस्पष्ट है कि आज के समय में मानव ही जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी है।
ग्रीनहाउस गैसों एवं जलवायु परिवर्तन में क्या सम्बन्ध है?
जैसे कि हम जानते हैं, पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन सम्भव है। पृथ्वी की सतह पर अनुकूल तापमान का होना ही जीवन की उपस्थिति का एक महत्त्वपूर्ण कारक हैं पृथ्वी का औसत सतही तापमान 14.40C है। शुक्र ग्रह का औसत सतही तापमान 4490C तथा मंगल ग्रह का -550C है। ये हमारे सबसे नजदीकी पड़ोसी ग्रह हैं।वायुमण्डल में ग्रीनहाउस वायुओं की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी का तापमान जीवन के लिये अनुकूल है। ये वायु सूर्य के प्रकाश से निकली कुछ ऊष्मा को अवशोषित करती हैं एवं इन्हें पृथ्वी की सतह के करीब रोक कर रखती हैं। यह प्राकृतिक प्रक्रिया ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ कहलाती हैं। ग्रीनहाउस वायुओं के बिना पृथ्वी पर, दिन झुलसा देने वाले गर्म व रातें जमा देने वाली सर्द होतीं।
परन्तु ग्रीन हाउस वायुओं की बहुत अधिक मात्रा भी समस्या पैदा कर सकती है। जैसे-जैसे इनकी मात्रा बढ़ने लगती है, पृथ्वी की सतह पर ऊष्मा की मात्रा में भी वृद्धि होने लगती है जिसके परिणामस्वरूप ‘ग्लोबल वार्मिंग’ होती है। पृथ्वी के इस प्रकार गर्म होने के कारण जलवायु में परिवर्तन होता है।
उदाहरण के लिये, वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि हम इसी दर से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते रहे तो इस वायु का स्तर औद्योगिक क्रान्ति से पहले की अपेक्षा दोगुना हो जाएगा। इसके फलस्वरूप वर्ष 2050 तक पृथ्वी का औसत तापमान 5.80C तक बढ़ जाएगा। हालांकि यह वृद्धि सुनने में कम लग सकती है, परन्तु इसके परिणाम विश्वव्यापी होंगे।
Answer:
Rapid Climate Change
By the 20th century, scientists had rejected old tales of world catastrophe, and were convinced that global climate could change only gradually over many tens of thousands of years. But in the 1950s, a few scientists found evidence that some changes in the past had taken only a few thousand years. During the 1960s and 1970s other data, supported by new theories and new attitudes about human influences, reduced the time a change might require to hundreds of years. Many doubted that such a rapid shift could have befallen the planet as a whole. The 1980s and 1990s brought proof (chiefly from studies of ancient ice) that the global climate could indeed shift radically within a century — perhaps even within a decade. And there seemed to be feedbacks that could make warming self-sustaining. Scientists could not rule out possible "tipping points" for an irreversible and catastrophic climate change if greenhouse gas emissions continued to rise.
Climate, if it changes at all, evolves so slowly that the difference cannot be seen in a human lifetime. That was the opinion of most people, and nearly all scientists, through the first half of the 20th century. To be sure, there were regional excursions, such as long spells of drought in one place or another. But people expected that after a few years "the weather" would automatically drift back to its "normal" state, the conditions they were used to. The planet's atmosphere was surely so vast and stable that outside forces, ranging from human activity to volcanic eruptions, could have no more than a local and temporary effect.
Full discussion in
<=Public opinion
<=Simple models
Looking to times long past, scientists recognized that massive ice sheets had once covered a good part of the Northern Hemisphere. The Ice Age was tens of thousands of years in the past, however, and it had been an aberration. During most of the geological record, the Earth had been bathed in uniform warmth — such was the fixed opinion of geologists. As one meteorologist complained as late as 1991, geology textbooks just copied down from their predecessors the venerable tradition that the age of the dinosaurs (and nearly all other past ages) had enjoyed an "equable climate."(2) The glacial epoch itself seemed to have been a relatively stable condition that lasted millions of years. It was a surprise when evidence turned up during the 19th century that the recent glacial epoch had been made up of several cycles of advance and retreat of ice sheets — not a uniform Ice Age but a series of ice ages.
Some geologists denied the whole idea, arguing that every glaciation had been regional, a mere local variation while "the mean climate of the world has been fairly constant."(3) But most accepted the evidence that the Earth's northern latitudes, at least, had repeatedly cooled and warmed as a whole. The global climate could change rapidly — that is, over the course of only a few tens of thousands of years. Probably the ice could come again. That gave no cause to worry, for it surely lay many thousands of years in the future.
<=Climate cycles
Assuming Stability
A very few meteorologists speculated about possibilities for more rapid change, perhaps even the sudden onset of an ice age. The Earth's climate system might be in an unstable equilibrium, W.J. Humphreys warned in 1932. Although another ice age might not happen for millions of years, "we are not wholly safe from such a world catastrophe."(4) The respected climate expert C.E.P. Brooks offered the worst scenario. He suggested that a slight change of conditions might set off a self-sustaining shift between climate states. Suppose, he said, some random decrease of snow cover in northern latitudes exposed dark ground. Then the ground would absorb more sunlight, which would warm the air, which would melt still more snow: a vicious feedback cycle. An abrupt and catastrophic rise of tens of degrees was conceivable, "perhaps in the course of a single season."(5) Run the cycle backward, and an ice age might suddenly descend.
<=Simple models
=>Chaos theory
Most scientists dismissed Brooks's speculations as preposterous. Talk of sudden change was liable to remind them of notions popularized by religious fundamentalists, who had confronted the scientific community in open conflict for generations. Believers in the literal truth of the Bible insisted that the Earth was only a few thousand years old, and defended their faith by claiming that ice sheets could form and disintegrate in mere decades. Hadn't mammoths been discovered as intact mummies with grass in their stomachs, evidently frozen in a shockingly abrupt change of climate? Scientists scorned such notions. Among other arguments, they pointed out that ice sheets kilometers thick must require at least several thousand years to build up or melt away. The physics of ice, at least, was simple and undeniable.