मातृभूमि का मान एकांकी में चारणी की
भूमिका कहाँ तक तर्क संगत है- अपने शब्दों
में लिखें?
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हरिकृष्ण प्रेमी विख्यात नाटककार एवं पत्रकार थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा एकांकी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपूर्व योगदान दिया है। राष्ट्रीय चेतना को जगाकर साम्प्रदायिक बंधुत्व की भावना समाज में रोपना उनका आदर्श था। प्रेमी जी की रचनाओं में भावुकता है, भाषा सरस एवं काव्यमय होते हुए भी सरल है। मातृभूमि की रक्षा के लिए क्या-क्या बलिदान नहीं करना पड़ता और उसके मान के लिए मित्र-शत्रु कैसे सब एक सूत्र में बँधकर स्वदेश प्रेम की आत्मा को जीवित रखते हैं, यह एकांकी मातृभूमि का मान’ हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत करता है। वीरसिंह मेवाड़ का एक सिपाही है लेकिन बूँदी का रहने वाला है, अत: वह नकली बूँदी की रक्षा के लिए भी अपने प्राणों को न्यौछावर कर देता है तथा इस प्रकार अपनी मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित करता है तथा सभी के सम्मान का पात्र बनता है।
कथानक –
33. Maharana Pratap
मेवाड़ के सेनापति अभयसिंह बूँदी के शासक राव हेमू के पास आकर कहते हैं कि हम राजपूतों की छिन्न-भिन्र असंगठित शक्ति विदेशियों का किस प्रकार सामना कर सकती है? इस कारण यह आवश्यक है कि वे अपनी शक्ति केन्द्र के अधीन रखें। वह यह भी कहते हैं कि इसके लिए महाराणा लाखा चाहते हैं कि छोटे-छोटे राज्य एवं बूँदी राज्य भी मेवाड़ के अधीन रहें। किन्तु बूँदी के शासक राव हेमू इस बात को स्वीकार नहीं करते और कहते हैं-प्रत्येक राजपूत को अपनी ताकत पर नाज़ है। इतने बड़े दंभ को मेवाड़ अपने प्राणों में आश्रय न दे, इसी में उसका कल्याण है। बूँदी स्वतंत्र राज्य है और स्वतंत्र रहकर महाराणाओं का आदर कर सकता है; अधीन रहकर किसी की सेवा करना वह पसन्द नहीं करता। मेवाड़ के शासक महाराणा लाखा को नीमरा के मैदान में बूँदी के राव हेमू से पराजित होकर भागना पड़ा, इसलिए वे अपने को धिक्कारते हैं, और आत्मग्लानि अनुभव करते हैं और इसी कारण वह जनसभा में जाना नहीं चाहते, और अभयसिंह से कहते हैं- जो आन को प्राणों से बढ़कर समझते हैं, वे पराजय का मुख देखकर भी जीवित रहें, यह कैसी उपहासजनक बात इस कारण वे प्रतिज्ञा करते हैं कि जब तक बूँदी के दुर्ग में ससैन्य प्रवेश नहीं कर लेंगे तब तक अन्न- जल ग्रहण नहीं करेंगे। अभयसिंह महाराणा को इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उत्साहित करते हैं।
जब महाराणा यह बात चारणी के सम्मुख रखते हैं तो चारणी महाराणा से बूँदी के राजा से युद्ध करने से मना करती है और कहती है-यदि बूँदी राज्य से कोई धृष्टता बन पड़ी है तो उसे क्षमा कर दें, महाराणा भी उनकी जन्मभूमि और मातृभूमि के प्रति आदर की भावना की सराहना करते हैं। अंत में वीरसिंह मारा जाता है। महाराणा को वीरसिंह के मारे जाने पर दुःख होता है। वीरसिंह के शव का आदर किया जाता है। दुर्ग पर मेवाड़ की पताका फहरायी जाती है लेकिन महाराणा कहते हैं कि इस विजय में उनकी सबसे बड़ी पराजय हुई है, व्यर्थ के दम्भ ने कितनों की जान ले ली। इसके बाद चारणी आती है और राणा से कहती है-अब तो आपकी आत्मा को शांति मिल गई होगी, और कहती है, बूँदी के दुर्ग पर मेवाड़ के सेनापति विजय पताका फहरा रहे हैं। यह सुनकर महाराणा और दु:खी होते हैं। चारणी पुन: महाराणा से कहती है-तो क्या महाराणा, अब भी मेवाड़ और बूँदी के हृदय मिलाने का कोई रास्ता नहीं निकल सकता? इस प्रकार राणा वीरसिंह के शव के पास बैठकर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगते हैं किन्तु उनके हृदय में एक प्रश्न उठ रहा है, वे कहते हैं-क्या बूँदी के राव तथा हाड़ा वंश का प्रत्येक राजपूत आज की इस दुर्घटना को भूल सकेगा? इतने में बूँदी के शासक राव हेमू आते हैं और कहते हैं- क्यों नहीं महाराषणा ! हम युग-युग से एक हैं, और एक रहेंगे। आपको यह जानने की आवश्यकता थी कि राजपूतों में न कोई राजा है। न कोई महाराजा; सब देश, जाति और वंश की मान-रक्षा के लिए प्राण देने वाले सैनिक हैं। इस पर अंत में महाराणा कहते हैं-“निश्चय ही महाराव! हम सम्पूर्ण राजपूत जाति की ओर से इस अमर आत्मा के आगे अपना मस्तक झुकाएँ।” तत्पश्चात् सब वीरसिंह के शव के आगे सिर झुकाते हैं।