मातृभाषा कि घटती अभिरुचि पर 300 शब्दों का निबंध
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भारत एक विशाल देश है । इसमें अनेक जाति, धर्मवलंबी और अनेक भाषा-भाषी निवास करते हैं । हमारे गणतंत्रीय संविधान में देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित किया गया है । इसीलिए विभिन्न धर्मावलंबी अपनी श्रद्धा और विश्वास के अनुसार धर्माचरण करने के लिए स्वतंत्र हैं ।
ऐसी स्थिति में धार्मिक आधार पर देश में एकता स्थापित नहीं हो सकती । विभिन्न जातियों, धर्मावलंबियों और भाषा-भाषियों के बीच एकता स्थापित करने का एक सबल साधन भाषा ही है । भाषा में एकता स्थापित करने की अदभूत शक्ति होती है । प्राचीन काल में विभिन्न मत-मतांतरों के माननेवाले लोग थे, परंतु संस्कृत ने उन सबको एकता के सूत्र में जकड़ रखा था । उस समय संपूर्ण भारत में संस्कृत बोली, लिखी और समझी जाती थी ।
स्वराज-प्राप्ति के पश्चात् हमारे संविधान निर्माताओं ने इस सत्य की अवहेलना नहीं की थी । उन्होंने सर्वोसम्मति से हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर स्थापित किया था और यह इसलिए कि भारत के अधिक-से-अधिक लोगों की भाषा हिंदी थी तथा उसमें देश का संपूर्ण शासकीय कार्य और प्रचार-प्रसार आसानी से हो सकता था ।
संविधान सभा में हिंदी भाषा-भाषी भी थे और अहिंदी भाषा-भाषी भी । उसमें अहिंदी भाषा-भाषियों का बहुमत था । उन्हीं के आग्रह से यह भी निर्णय किया गया था कि पंद्रह वर्षों में हिंदी अंग्रेजी का स्थान ले लेगी; परंतु आज तक यह निर्णय खटाई में पड़ा हुआ है ।
सन् १९६३ और ११६८ में भाषा संबंधी नीति में जो परिवर्तन किए गए हैं, उनके अनुसार हिंदी के साथ अंग्रेजी भी चल सकती है; पर वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी के साथ हिंदी घसीटी जा रही है । ऐसी है राष्ट्रभाषा के प्रति हमारी आदर- भावना |
देश में अनेक समृद्ध भाषाओं के होते हुए हिंदी को ही राष्ट्रभाषा के लिए क्यों चुना गया-यह प्रश्न किया जा सकता है । इस संदर्भ में महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के निम्नलिखित लक्षण निश्चित किए-
१. वह भाषा सरकारी नौकरी के लिए आसान होनी चाहिए ।
२. उस भाषा के द्वारा भारत का धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम-काज निर्विध्न तथा सुचारु रूप से होना चाहिए ।
३. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों ।
४. वह भाषा जन सामान्य के लिए सहज, सरल व बोधगम्य होनी चाहिए ।
५. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक अथवा अस्थायी स्थिति पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए ।
भारत की सभी भाषाओं का जन्म या तो संस्कृत से हुआ है या उन्होंने अपने को समृद्ध बनाने के लिए संस्कृत शब्दावली को अधिकाधिक स्थान दिया है । दक्षिण की भाषाएँ- तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि आर्येतर कही जाती हैं; परंतु इन सब पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में संस्कृत का प्रभाव पड़ा है ।
ऐसी स्थिति में धार्मिक आधार पर देश में एकता स्थापित नहीं हो सकती । विभिन्न जातियों, धर्मावलंबियों और भाषा-भाषियों के बीच एकता स्थापित करने का एक सबल साधन भाषा ही है । भाषा में एकता स्थापित करने की अदभूत शक्ति होती है । प्राचीन काल में विभिन्न मत-मतांतरों के माननेवाले लोग थे, परंतु संस्कृत ने उन सबको एकता के सूत्र में जकड़ रखा था । उस समय संपूर्ण भारत में संस्कृत बोली, लिखी और समझी जाती थी ।
स्वराज-प्राप्ति के पश्चात् हमारे संविधान निर्माताओं ने इस सत्य की अवहेलना नहीं की थी । उन्होंने सर्वोसम्मति से हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर स्थापित किया था और यह इसलिए कि भारत के अधिक-से-अधिक लोगों की भाषा हिंदी थी तथा उसमें देश का संपूर्ण शासकीय कार्य और प्रचार-प्रसार आसानी से हो सकता था ।
संविधान सभा में हिंदी भाषा-भाषी भी थे और अहिंदी भाषा-भाषी भी । उसमें अहिंदी भाषा-भाषियों का बहुमत था । उन्हीं के आग्रह से यह भी निर्णय किया गया था कि पंद्रह वर्षों में हिंदी अंग्रेजी का स्थान ले लेगी; परंतु आज तक यह निर्णय खटाई में पड़ा हुआ है ।
सन् १९६३ और ११६८ में भाषा संबंधी नीति में जो परिवर्तन किए गए हैं, उनके अनुसार हिंदी के साथ अंग्रेजी भी चल सकती है; पर वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी के साथ हिंदी घसीटी जा रही है । ऐसी है राष्ट्रभाषा के प्रति हमारी आदर- भावना |
देश में अनेक समृद्ध भाषाओं के होते हुए हिंदी को ही राष्ट्रभाषा के लिए क्यों चुना गया-यह प्रश्न किया जा सकता है । इस संदर्भ में महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के निम्नलिखित लक्षण निश्चित किए-
१. वह भाषा सरकारी नौकरी के लिए आसान होनी चाहिए ।
२. उस भाषा के द्वारा भारत का धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम-काज निर्विध्न तथा सुचारु रूप से होना चाहिए ।
३. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों ।
४. वह भाषा जन सामान्य के लिए सहज, सरल व बोधगम्य होनी चाहिए ।
५. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक अथवा अस्थायी स्थिति पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए ।
भारत की सभी भाषाओं का जन्म या तो संस्कृत से हुआ है या उन्होंने अपने को समृद्ध बनाने के लिए संस्कृत शब्दावली को अधिकाधिक स्थान दिया है । दक्षिण की भाषाएँ- तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि आर्येतर कही जाती हैं; परंतु इन सब पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में संस्कृत का प्रभाव पड़ा है ।
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