Hindi, asked by muskanjain7243gmail, 5 months ago

माता पिता हमारे जीवन के अमूल्य निधी है, जिनकी सेवा करना हमारा परम धर्म है। इस संदर्भ में विस्तार से अपने विचार लिखिए।

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Answered by alok3290
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Answer:

-मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य विचार करे तो उसे संसार में अपने लिये सबसे अधिक महत्वपूर्ण व उपकारी माता-पिता का संबंध प्रतीत होता है। माता-पिता न होते तो हम व अन्य कोई मनुष्य इस कर्मभूमि रूपी संसार में जन्म नहीं ले सकता था। माता-पिता की भूमिका यदि जन्म तक ही सीमित होती तो भी उनका अपनी सन्तानों के प्रति योगदान महान था। जन्म के बाद माता-पिता बच्चों का पालन व शिक्षा आदि की प्राथमिक आवश्यकतायें भी पूरी करते हैं। इस पालन के कार्य में परिवारों में बच्चे के दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-तायी, बुआ आदि परिवारजन भी सम्मिलित होते व हो सकते हैं। यह संबंधी यदि किसी परिवार में न भी हों तो भी सन्तान का पालन हो जाता है। अतः माता-पिता का जन्म एवं पालन आदि की दृष्टि से किसी भी सन्तान के लिये सर्वोच्च महत्व है। यही कारण है कि हमारे वेदादि शास्त्रों वा ऋषियों ने माता व पिता को प्रथम व द्वितीय देवता बताया है और इनकी सर्वविध सेवा कर इनका आशीर्वाद व शुभकामनायें प्राप्त करने का सभी मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये। हमने यह जो शब्द व वाक्य लिखे हैं यह सिद्धान्त की दृष्टि से तो ठीक है परन्तु हम जब अपने आसपास के लोगों को देखते हैं तो उनमें से अधिकांश लोग हमें माता-पिता का उचित आदर-सत्कार व सेवा करते दृष्टिगोचर नहीं होते। जो सन्तानें अपने माता-पिता का आदर सत्कार करने के साथ उन्हें भोजन व निवास की सुविधा देने सहित उनकी सेवा आदि द्वारा उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सकतीं, वह सन्तानें भाग्यहीन एवं ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में दण्ड की भागी होती हैं। अनुमान से लगता है कि ऐसे लोगों को दण्ड अगले जन्म में प्राप्त होता है। कुछ को इस जन्म में भी प्राप्त हो सकता है। माता-पिता के प्रति उचित व्यवहार न करने वालों को ईश्वर की व्यवस्था से सुख तो कदापि नही प्राप्त सकता। सन्तानों का अपने माता-पिता का ध्यान न रखना व उनके होते हुए उनके द्वारा कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना सन्तानों की महान कृतघ्नता का द्योतक है। माता-पिता के प्रति उचित व्यवहार न करने वालों के पास कहने के लिये कुछ बातें हो सकती हैं, परन्तु ऐसा होने पर भी उनका कर्तव्य होता है कि वह अपने माता-पिता के सद्परामर्शों को मानें और उनका वाणी सहित उनसे आदर, प्रेम, सेवा, सहयोग का व्यवहार करें।

रामायण के आधार पर हमारे देश में श्रवणकुमार की कथा प्रचलित है। श्रवण–कुमार का यश आज भी इसी कारण विद्यमान है कि उन्होंने समुचित साधन न होते हुए भी अपने अन्धे व बूढ़े माता–पिता की सेवा करते हुए उन्हें तीर्थयात्रा कराने का साहसिक एवं श्रमसाध्य कार्य किया था। आज के युग में तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई व्यक्ति कांवड़ में अपने माता–पिता को बैठा कर कुछ गज या मीटर की दूरी पर ही उन्हें ले जाये। वर्तमान समय में आवश्यकता भी नहीं है। यदि अन्य साधन हैं तो उनका उपयोग करना उचित है। परन्तु श्रवण कुमार के समय उस युग में जब यातायात व भ्रमण के आज के समान साधन नहीं थे, उस समय उसने कांवड़ में अपने बूढ़े व अन्धे माता–पिता को बैठा कर वस्तुतः एक आदर्श एवं प्रेरणादायक कार्य किया था। विश्व के इतिहास में माता-पिता की सेवा की शायद ऐसी घटना कहीं नहीं मिलेगी। कुछ समय पूर्व देहरादून में एक माता के त्याग की एक घटना घटी थी। एक शेर गांव में आया और उसने एक बच्चे को अपने जबड़े में उठा लिया। उस बच्चे की माता ने उस शेर से संघर्ष किया। इस खूनी संघर्ष में उस माता ने अपने बच्चे को शेर से छुड़ा लिया। माता व बच्चा दोनों घायल हो गये थे। ऐसी वीर माता की यदि यह बच्चा बड़ा होकर सेवा-शुश्रुषा न करे तो उसे कृतघ्न नहीं कहा जायेगा तो क्या कहा जायेगा। हमने एक निर्धन परिवार की ऐसी माता को भी देखा है जिसके चार जीवित बच्चे थे। उनका लालन पालन के लिये समय समय पर उन्होंने गाय व बकरी पाली। एक स्थान पर मटर छीलती थी जिसे डिब्बो में पैक कर देश-विदेश में बेचा जाता था। इस माता ने बच्चों को कुछ बड़ा होने पर कुर्सियां बुनने का काम भी सिखवाया जिससे पढ़ाई के साथ परिवार के पालन में सहायता मिल सके। श्रमिक पिता ने भी अपने परिवार के पालन में यथासम्भव योगदान दिया। माता जी महीने पन्द्रह दिन से अधिक व्रत रखा करती थीं जिससे उनके बच्चों का पेट भर सके। बच्चों व माता ने अर्थोपार्जन के लिए अन्य कार्य भी किये। सभी बच्चे पढ़े लिखे और स्वावलम्बी बने। इसी माता की मृत्यु के बाद जन्में इस परिवार के बच्चे यह अनुमान भी नहीं कर सकते कि उनके माता-पिता व नानी नाना ने कितना संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया था? इन माता-पिता ने कभी न अच्छे कपड़े ही पहने और न ही अपने अन्य किसी निजी सुख का ध्यान रखा। धन्य है वह देवी व उसके माता-पिता जिनसे उसे ऐसे संस्कार मिले थे। इससे मिलती जुलती घटनायें सर्वत्र देखने को मिल जाती हैं। अतः हमें अपने जीवन का निरीक्षण करना चाहिये और देखना चाहिये कि क्या हम अपने जीवित माता-पिता का उचित रीति से ध्यान रख रहे हैं? यदि नहीं तो हमें प्रायश्चित करने के साथ अपनी गलतियों का सुधार कर माता-पिता के प्रति शास्त्रानुकूल व्यवहार करना आरम्भ कर देना चाहिये।

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