मंत्र कहानी का सारांश लिखिए
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चरित्र और चिन्तन, विचार और सुविधा, कठोरता और तरलता के द्वंद्वात्मकता का चरित्र-चित्रण है। मोटे तौर पर देखने पर यह कहानी ‘मनुष्य और सांप’ के दो वर्ग की भी कहानी है। अजीब बात हैं कि मनुष्य अपनों में सांप बहुतायत से देख लेता है किन्तु सांपों को मनुष्य दिखाई नहीं देते।
यद्यपि प्रेमचंद अपनी कथाओं में समाज का यथार्थ चित्रण करते थे किन्तु उनका उद्देश्य आदर्शमूलक था। उनकी सभी कहानियां समाज के द्वंद्वात्मक वर्गों का व्यापक चित्र प्रस्तुत करती हैं। अच्छे और बुरे, अमीर और गरीब, ऊंच और नीच, पढे-लिखे और अनपढ़, ग्रामीण और शहरी, उद्योगपति और मजदूर। स्थूल रूप से भारत का समाज ऐसे जितने भी वर्गों में विभाजित है और उसमें जितनी भी विद्रूपताएं हैं, उनका वर्णन संपूर्ण व्याप्ति और पूर्णता के साथ प्रेमचंद की कथाओं में मिलता है।
भारत वर्गों का नही जातियों का देश है। यहां वर्गों का विभाजन अकल्पनीय है। हम जातीय समाजों में रहते हैं। यह जातीय समाज विविध वर्गों में रहता है। यह वर्ग गणित के वर्ग से बिल्कुल भिन्न है। गणित का वर्ग तो उस समाज से बिल्कुल मेल नहीं खाता जिसका चित्रण प्रेमचंद ने अपनी तीन सौ पचास घोषित और बहुपठित कहानियों में किया है। इन वर्गों में गणित के वर्गों की भांति एक भी भुजा बराबर नहीं है, न तो एक भी कोण ही समकोण है। गणित के वर्ग में जो चारों भुजा की बराबरी और प्रत्येक कोण के समकोण होने का सिद्धांत है, वह समाज में नहीं चलता। यह भारतीय समाज है। विषमतावादी समाज। भारतीय समाज का वर्ग ‘रेच’ होने की विद्रूपता से भरा हुआ है। इसकी हर भुजा ऐचक हैं और हर कोण रेच में है। भारतीय वर्ग दुनिया के किसी भी गणित में आंकिक या रैखिक नहीं बैठता। इस समाज की आंतरिक त्रिकोणमिति भी समीकरणों में बंटी हुई है। यही वजह है कि भारतीय समाज और वर्ग का न तो वर्गमूल ही निकलता है, न कोई हल।
‘मंत्र’ कथा में प्रेमचंद ने इसका हल निकालने का प्रयास किया है। मार्मिक यथार्थ और आदर्शात्मक निदान के माध्यम से। किन्तु यह भी द्वंद्वात्मक निष्कर्ष है। एक तरफ अमीर, सभ्य, सुविधासम्पन्न लोगों के पास दया, सेवाभाव, करुणा, ममता, सहानुभूति का अभाव है। उसका पूरा समय तो अपने लिए सुख, सुविधा, लाभ, श्रेय जुटाने में बंटा हुआ है। किसी विवश हितापेक्षी, संकटग्रस्त व्यक्ति के लिए उसने समय बचाकर ही नहीं रखा।
दूसरी तरफ दीन, हीन, वंचित, सर्वहारा, श्रमजीवी वर्ग है, जिसके पास अपने लिए भले ही कुछ न हो, ‘दूसरों के लिए समय ही समय’ है। सेवा, उपकार, श्रमदान आदि इसी वर्ग के लिए बनाए गए आदर्श हैं। बिना किसी भुजा और बिना कोणवाला यह अद्भुत वर्ग इन्हीं अपेक्षाओं में जीता है कि जितना बने दूसरों के काम आओ। आर्थिक और आस्त्रिक विपन्नता उसकी विवशता हो सकती है। इधर विज्ञानवादी सुविधाभोगी समाज में इन सिद्धांतों की केवल भाप निकलती है। वे न तो द्रवित होते हैं न उनका कोई ठोस आधार बनता। असहायों का आपेक्षिक घनत्व सभ्य समाजों में शून्य है। वे अपनी आवश्यकतानुसार समर्थों की आंखों का पानी हटाने की सामथ्र्य नहीं रखते।
इसी परिकल्पना को प्रमेय बनाकर प्रेमचंद ने अपनी कहानी के सूत्र बुने हैं।
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