मुंत्र पाठ में बूढ़े चौधरी ने लीलाधर चौबे को नर्ा जीिनदान कैसे ददर्ा?
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मंत्र'' नाम से प्रेमचंद की दो कहानियां हैं। एक ‘‘मंत्र'' विवेच्य है। दूसरी ‘‘मंत्र'' (विशाल भारत, मार्च- 1928) में डॉ. चड्ढ़ा के इकलौते बेटे कैलाश को सर्पदंश होता है। वह बेहोश पड़ा है। उसके जीवन की आस बुझ गई है। एक बूढ़ा भगत अपनी मंत्र माया से उसमें प्राण डाल देता हैं। यह ऐसा जादुई करिश्मा है, बाजीगर पीछे हट जाएं।
समीक्ष्य कहानी ‘‘मंत्र'' माधुरी फरवरी, 1926 में प्रकाशित हुई थी। कहानी - अछूतों को हिन्दू धर्म से जोड़े रखने की वकालत है।
उन दिनों छुआछूत और जातपांत के नगाड़े बज रहे थे। हिन्दू लोग अछूतों के साथ पशुवत व्यवहार करते थे। अछूत इस अपमान और उत्पीड़न से बुरी तरह आहत और आतंकित थे। अपने सम्मान की रक्षा के लिए अछूतों के गांव के गांव मुसलमान अथवा ईसाई बन रहे थे।
अछूतों के बहुसंख्या में धर्म से अलग हो जाने पर सवर्णों को चिंता हुई। उनके पेट का पानी हिला। हिन्दू अल्पमत हो जाएंगे। अछूतों को धर्म बदलने से रोकना होगा।
हरिद्वार में सन् 1915 में हिन्दू महासभा का स्थापना हुई थी। महासभा के गठन के रूप में यह पहला अवसर था, जब अछूतों को हिन्दू बनाये रखने की मुहिम का सूत्रपात हुआ।
हिन्दू और हिन्दू संस्कारों के कारण प्रेमचंद की हिन्दूमहासभा में आस्था बन गई थी। ‘‘मंत्र'' कहानी में उनकी आस्था फूट कर बाहर आई है।
अछूतों और आदिवासियों को हिन्दू बनाये रखने के महासभा के मूल एजेण्डा पर प्रेमचंद ने कई कहानियां लिखीं। उनमें ‘मंत्र' और ‘सौभाग्य का कोड़ा' प्रमुख हैं। महासभा का कार्य अभी प्रारंभिक दौर में था। प्रेमचन्द अपने विचारों और कहानियों के माध्यम से बख्तरबंद सिपाही की भांति महासभा के मंसूबे को फलीभूत करने के लिए मुस्तैद थे।
‘मंत्र' के कथानायक लीलाधर चौबे मार्त्तण्ड हैं। वे हिन्दू महासभा के एक जागरूक नुमाइंदे के रूप में उपस्थित होते हैं। कुछ कथा समीक्षक चौबे जी को गांधी जी का मिथक मानते हैं। दरअसल गांधी जी इतने कट्टरवादी हिन्दू नहीं थे, जितने प्रेमचंद थे। चौबे में प्रेमचंद का चरित्र उज्ज्वल है।
‘‘मंत्र'' के अनुसार- ‘‘खबर आई कि मद्रास प्रांत में तवलीग वालों ने तूफान मचा रखा है। हिन्दुओं के गांव के गांव मुसलमान होते जाते हैं। मुल्लाओं ने बड़े जोश से तवलीग का काम शुरू किया है। अगर हिन्दुओं ने इस प्रवाह को रोकने की आयोजना नहीं कि तो सारा प्रांत हिन्दुओं से शून्य हो जाएगा। किसी शिखाधारी की सूरत तक नज़र नहीं आएगी।''
मंत्र कहती है - ‘‘हिन्दू महासभा में खलबली मच गई। तुरंत एक विशेष अधिवेशन हुआ और नेताओं के सामने समस्या उत्पन्न हो गई। बहुत सोच-विचार के बाद निश्चय हुआ कि चौबे जी पर इस कार्य का भार रखा जाए। चौबे जी हिन्दू जाति की सेवा के लिए अपने को अर्पण कर चुके थे। हिन्दूसभा ने उन्हें बड़ी धूम से विदाई का भोज दिया।''
कहानी में प्रेमचंद आगे लिखते हैं- ‘‘हर एक स्टेशन पर सेवकों का बड़ा सम्मानपूर्ण स्वागत हुआ। कई जगह थैलियां मिलीं। रतलाम की रियासत ने एक शामयाना भेंट किया। बड़ौदा ने एक मोटर दी कि सेवकों को पैदल चलने का कष्ट न उठाना पड़े। मद्रास पहुंचते-पहुंचते सेवा दल के पास एक माकूल रकम के अतिरिक्त जरूरत की कितनी चीजें जमा हो गईं।''
पंडित लीलाधर चौबे अपने लाव लश्कर, लारी और सेवकों के साथ जब तक मद्रास पहुंचे, हम ‘‘मंत्र'' के कथानक की पृष्ठभूमि की ओर कूच करते हैं।
गांधी जी का राजनीति में जो स्थान है, वही स्थान प्रेमचंद का साहित्य में रहा है। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में महारथ पाई। दोनों की महानता के पार्श्व में मुख्य रूप से दलित रहे हैं। गांधी जी अछूतोद्धार आंदोलन को लेकर महात्मा हुए। प्रेमचंद दलितों पर लिख कर पुरोधा बने। महात्म्य और पुरोधाई दोनों का ध्येय दलितों को हिन्दू बनाये रखना था। गांधी जी यह कार्य वाक्चातुर्य से कर रहे थे, तो प्रेमचंद कलम की सफाई से।
उन दिनों डॉ. अम्बेडकर विदेशों से विद्याध्ययन कर स्वदेश लौट आये थे। उनके सामने अब दो राहें थी। अपनी उच्च शिक्षा और तीक्ष्ण मेधा के बूते अंगे्रज सरकार में ऊंचा पद पा लेना। दूसरी राह थी, सदियों से नारकीय जीवन जी रहे शूद्र वर्ण को दासत्व से मुक्ति दिलाना। एक गहन आत्ममंथन के बाद चुनौती भरी दूसरी राह पर उनके कदम बढ़ गये थे।
अस्पृश्यता की नोंचें बालपन से ही डॉ. अम्बेडकर के हृदय पटल पर थीं । छुआछूत के दंश से वे बुरी तरह आहत थे। इस मुकाम तक आते उन्होंने पाया कि दलितों की दयनीयता का हेतु कारण धर्मशास्त्र और हिन्दू धर्म है। चातुर्वर्ण्यव्यवस्था अस्पृश्यता का बीज है।
इधर गांधी जी वर्ण व्यवस्था की अमरता की कामना करते अस्पृश्यता -निवारण के लिए अपना अछूतोद्धार आंदोलन चला रहे थे। डॉ. अम्बेडकर और गांधी जी के बीच नैतिक टकराहटें थीं।
डॉ. अम्बेडकर का मंतव्य था, वर्ण व्यवस्था को समाप्त करके ही अस्पृश्यता का खात्मा किया जा सकता है।
गांधी जी वर्ण व्यवस्था को शास्त्रोक्त मानते हुए उसके प्रति आराध्य भाव रखते थे।
डॉ. अम्बेडकर द्वारा स्वदेश लौटने के बाद से ही अछूतोद्धार आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में लेने के पश्चात हिन्दू महासभा को अपना मिशन धूमिल नजर आने लगा । हिन्दू महासभा का ध्येय अछूतों को हिन्दू बनाये रख कर बहुमत तक सीमित था। हिन्दू महासभा का अछूतों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास की ओर तनिक भी ध्यान नहीं है, जबकि डॉ. अम्बेडकर इन्हीं मूलभूत कारणों को लेकर दलितोद्धार के अपने आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे। धर्मपरायण प्रेमचंद भी हतप्रभ हुए। उन्होंने ‘मंत्र' और ‘सौभाग्य के कोडे' जैसी कहानियां और लेख लिख कर डॉ. अम्बेडकर का प्रतिकार किया।