मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना पर विचार कीजिए
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वैचारिकता और निष्ठाओं में राष्ट्र को लेकर घटती चिंता और क्षुद्र राजनीतिक और निजी स्वार्थों के धुएं की धुंध से सोच कुंठित हो रही हो, ऐसे माहौल में सवाल यह उठता है कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को किस तरह से याद करें? तीन अगस्त 1886 को चिरगांव, झांसी में जन्मे गुप्त अपनी सादगी और सरलता के लिए जितना विख्यात रहे, उतनी ही अपनी राष्ट्रीय भावना युक्त कविताओं के लिए...उनकी रचनाओं के विशाल कैनवास पर नजर डालेंगे तो एक चीज हर जगह समाहित नजर आती है। वह है, उनकी राष्ट्र के प्रति अगाध भक्ति। राष्ट्र को लेकर उनकी चेतना पारंपरिक वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को साथ लेकर चलती है, लेकिन जब लगता है कि करूणाभाव राष्ट्र को कमजोर कर सकता है तो वे निज गौरव के प्रति आग्रहीभाव रखने से खुद को नहीं चूकते।
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं ऐसी हैं, जिन्हें वैदिक सूत्रों की तरह सूक्त वाक्य के तौर पर प्रदर्शित किया जा सकता है। पिछली सदी के स्कूलों में बच्चों को प्रेरित करने के लिए सबसे ज्यादा स्कूलों की दीवारों पर किसी की रचनाओं ने बतौर सूक्त वाक्य जगह बनाई थी, वे राष्ट्रकवि गुप्त की ही रचनाएं थीं। स्कूली दीवार पर ही पहली बार आज से करीब साढ़े तीन दशक पहले पढ़ी गई यह पंक्ति किसको भाव से नहीं भर देती-आज नारी सशक्तीकरण की खूब बात हो रही है। नारी को बराबरी का दर्जा देने, चूल्हा-चौका से बाहर जीवन के रणक्षेत्र में गंभीर और चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं देने और उन्हें आगे लाने की बात की जा रही है। मैथिलीशरण गुप्त को गुजरे पांच दशक से ज्यादा हो गया। उसके पहले ही उन्होंने बुद्ध की पत्नी यशोधरा पर रचित खंड काव्य में इस सोच को प्रदर्शित कर दिया था। बुद्ध सोते में यशोधरा और अपने नवजात पुत्र को छोड़कर महल से निकल गए थे। यह सोचकर कि कहीं उनकी पत्नी रोक न ले। लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा अपनी सखी से पूछती है कि क्या अगर वे पूछ कर गए होते तो वह क्या उन्हें रोक लेती। भावुकता से लिपटी भारतीय नारी अपने कर्तव्यपथ से कैसे विमुख हो सकती थी...यशोधरा में गुप्त की सारी संवेदना यशोधरा के साथ है, विश्वविजयी बुद्ध के साथ नहीं। यशोधरा पूछती है,