मुद्रित (प्रिंट) माध्यम का उदाहरण ?
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विज्ञापन जगत के दिग्गजों ने मुद्रित माध्यमों की क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं किया है। इस क्षेत्र के ग्राहकों से जुडऩे की अपार संभावनाओं के बारे में विस्तार से बता रहे हैं मधुकर सबनवीस
हाल में मैं एक पुरस्कार समारोह में गया था जहां प्रिंट विज्ञापनों में सर्वश्रेष्ठï का प्रदर्शन किया गया था। रोचक बात यह है कि पुरस्कृत सामग्री में कम ही ऐसी थी जिन पर लोगों का ध्यान गया हो। स्पष्टï है कि हम आमतौर पर प्रिंट मीडिया में जो बड़े विज्ञापन देखते हैं और जो समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छपते हैं उनको उद्योग जगत के जानकार रचनात्मकता के स्तर पर बहुत अच्छा नहीं मानते। टेलीविजन के साथ बात अलग है क्योंकि उसका अधिकांश रचनात्मक काम बहुत अधिक लोकप्रिय होता है और वह दिखता भी है। ऐसा क्यों है?
स्पष्टï है कि गत दो दशक के दौरान टेलीविजन की प्रचुरता के बीच प्रिंट को लेकर नजरिया बदला है। अब टेलीविजन दूरस्थ स्थानों तक पहुंच बनाने का माध्यम हो गया है। इसमें तात्कालिकता है और वह ऐसी सूचनाएं जारी करता है जो खरीदारी को बल देती हैं। ब्रांड निर्माण ने भी टेलीविजन का रुख कर लिया है। उसके पास किस्सों को भावनाओं के साथ प्रकट करने की ताकत है। टेलीविजन की इस उपस्थिति ने प्रिंट माध्यम को स्थानीय सूचनाओं पर अधिक केंद्रित कर दिया है। आम धारणा है कि उपभोक्ताओं की ध्यान देने की अवधि बहुत अधिक नहीं होती है और इस लिहाज से यह मान लिया गया कि लोग इस माध्यम पर उस कदर ध्यान नहीं देते। इसके चलते इसे लेकर व्यवहार में भी बदलाव आया। इन सारी बातों ने इस माध्यम को लेकर रचनात्मकता को कम कर दिया है।
प्रिंट विज्ञापनों में अक्सर भारी भरकम फॉन्ट और रंग दिखाई देते हैं। ऐसा ध्यान आकृष्ट करने के लिए किया जाता है। रोचक बात यह है कि भारत में टेलीविजन के साथ ही साथ प्रिंट माध्यम का भी विकास होता रहा। ऐसे देश में जहां साक्षरता और शिक्षा का स्तर बढ़ रहा हो, ऐसा कतई आश्चर्यजनक नहीं। समाचार पत्र पढऩा साक्षरता का प्रतीक है, समाचार पत्रों को पाठकों का स्नेह मिलता रहा है और मिलता रहेगा। ऐसे समाज में जहां अंग्रेजी को तरक्की की चाबी माना जाता हो (छोटे शहरों और कस्बों में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की बढ़ती संख्या देखिए) ऐसे में अंग्रेजी समाचार पत्र खरीदना और पढऩा भी एक तरह के रसूख से ताल्लुक रखता है।
पॉपुलर कल्चर में प्रिंट मीडिया ने खुद को नए सिरे से तलाशा है। ठीक उसी तरह जिस तरह सिनेमा और टेलीविजन का जबरदस्त विस्तार हुआ है। किताबों की दुनिया के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। फिर चाहे वह गल्पकथाएं हों या गैर गल्प। कई लोगों मसलन, चेतन भगत, अमीश ओर प्रकाश अय्यर ने अच्छे खासे करियर को तिलांजलि दे दी या वे किताबें लिखने के साथ-साथ अन्य कामों में भी लगे हुए हैं। इनमें से कई किताबें ऐसी हैं जिनके पाठकों की संख्या और बिक्री का आंकड़ा भी बहुत सीमित होगा। समय बदलने के साथ इनके स्वरूप में भी बदलाव आ सकता है और ये मुद्रित पुस्तकों से डिजिटल तक का सफर तय कर सकते हैं। लेकिन लिखित शब्दों का प्रभाव अब नए सिरे से महसूस किया जा सकता है। आंकड़ों के मुताबिक इन दिनों प्रकाशित पुस्तकों का आकार पहले के मुकाबले बड़ा है। इससे संकेत मिलता है कि लोगों को अगर और अधिक पढऩे को मिले तो वे उसे भी पढ़ेंगे।
समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की बात करें तो उनमें फोटो फीचर का उभार देखना रोचक है। शायद उनको समय की कमी से जूझ रहे पाठकों के साथ तालमेल बनाने का अधिक सहज उपाय माना गया हो। मेरे लिए यह संचार की एक नई भाषा का उभार है। लिखित शब्दों और तस्वीर दोनों की उभरते डिजिटल विश्व में पहचान है। ब्लॉग और इंस्टाग्राम इसके उदाहरण हैं जहां लोग अपने विचारों, चित्रों और सूचनाओं का आदान प्रदान करते हैं। ऐसे में एक ओर जहां दृश्य-श्रव्य माध्यमों की अपनी मजबूतियां हैं वहीं शब्दों और चित्रों की भाषा भी पर्याप्त फलफूल रही है। इसके अलावा इनकी विश्वसनीयता अलग तरह की है।
भारत में मौखिक संचार की परंपरा रही है। इससे दृश्य-श्रव्य माध्यमों की ग्राह्यïता को समझा जा सकता है। फिर चाहे बात 1990 के दशक मे टेलीविजन की हो या नई सदी में रेडियो की वापसी। हम सुनकर सीखते हैं और ये माध्यम इस काम में हमारी मदद करते हैं। तथापि लिखित वाक्य और तस्वीरों की अपनी अलग अहमियत है। हमें अभी भी
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mudrit madyam kise kehte h