मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?
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उत्तर :
मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजी काल में भारतीय लेखकों ने अनेक ऐसी पुस्तकों की रचना की जो राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत थी। बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंदमठ ने लोगों में देश प्रेम की भावना का संचार किया । वंदे मातरम गीत भारत के कोने कोने में गूंजने लगा।
भारतीय समाचार पत्रों ने भी राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उचित वातावरण तैयार किया। अमृत बाजार पत्रिका, केसरी , मराठा, हिंदू तथा मुंबई समाचार आदि समाचार पत्रों में छपने वाले लेख राष्ट्रीय प्रेम से ओतप्रोत होते थे । इन लेखों ने भारतीयों के मन में राष्ट्रीयता की ज्योति जलाई। इसके अतिरिक्त भारतीय समाचार पत्र अंग्रेजी सरकार की गलत नीतियों को जनता के सामने रखते थे और उनकी खुलकर आलोचना करते थे।समाचार पत्रों के माध्यम से ही लोगों को पता चला कि अंग्रेजी सरकार किस प्रकार बांटो तथा राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति का अनुसरण कर रही है। उन्हें भारत से होने वाले धन की निकासी की जानकारी भी समाचार पत्रों ने हीं दी। इस प्रकार समाचार पत्रों ने उनके मन में राष्ट्रीयता के बीज बोऐ। सच तो यह है कि मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद को बहुत ही मजबूत आधार प्रदान किया।
आशा है कि यह उत्तर आपकी मदद करेगा।।
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Explanation:
इसके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द सोशियोलॉजी लेटिन भाषा के सोसस तथा ग्रीक भाषा के लोगस दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका अर्थ क्रमशः समाज का विज्ञान है। इस प्रकार सोशियोलॉजी शब्द का अर्थ भी समाज का विज्ञान होता है। परंतु समाज के बारे में समाजशास्त्रियों के भिन्न – भिन्न मत है इसलिए समाजशास्त्र को भी उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है।
अति प्राचीन काल से समाज शब्द का प्रयोग मनुष्य के समूह विशेष के लिए होता आ रहा है। जैसे भारतीय समाज , ब्राह्मण समाज , वैश्य समाज , जैन समाज , शिक्षित समाज , धनी समाज , आदि। समाज के इस व्यवहारिक पक्ष का अध्यन सभ्यता के लिए विकास के साथ-साथ प्रारंभ हो गया था। हमारे यहां के आदि ग्रंथ वेदों में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
इनमें पति के पत्नी के प्रति पत्नी के पति के प्रति , माता – पिता के पुत्र के प्रति , पुत्र के माता – पिता के प्रति , गुरु के शिष्य के प्रति , शिष्य के गुरु के प्रति , समाज में एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के प्रति , राजा का प्रजा के प्रति और प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्यों की व्याख्या की गई है।
मनु द्वारा विरचित मनूस्मृति में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था और उसके महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और व्यक्ति तथा व्यक्ति , व्यक्ति तथा समाज और व्यक्ति तथा राज्य सभी के एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों को निश्चित किया गया है। भारतीय समाज को व्यवस्थित करने में इसका बड़ा योगदान रहा है इसे भारतीय समाजशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जा सकता है।